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________________ ७८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ तत्त्वसंवेदनसमयाध्यासितमेव सर्वमाभाति नान्यसमयादियोगि अन्यकालादियोगिनोऽपि तदा प्रतिभासने दैव प्रकाशरूपसद्भावः इति वर्तमानैव पूर्वकालादियोगतो भवेत् नातीता। प्रकाशमानरूपविरहे च न तदा पूर्वकालादियोगिताया प्रतिभासनमित्येकत्वस्यानुपलब्धेर्न प्रत्यभिज्ञा कथंचिदपि सम्भविनी। न च संवादोऽ प्येकत्वे सिद्धः, स हि तदर्थज्ञा(?)न्तरवृत्तिः म(न)रैकत्वे पुनः ज्ञानवृत्तिः इत्युक्तम् । तज्जातीये तु पुनदर्शनं 5 प्रवर्त्तते तदैव च संवादात् समभिमानो लोकस्य तत्त्वाध्यवसायात् । तथाहि – ‘स एवायम्' इति तदर्थक्रियाकारी अयं भावः इत्युच्यते तदर्थकारित्वं च भिन्नस्याप्युपलब्धम् यथा चक्षुरादेस्तज्ज्ञानजननम् तत्रैव च ‘स एवायम्' इति भेदेऽप्येकत्वव्यवहारः अथवा पूर्वापरदर्शनाभ्यां परस्परपरिहारेण प्रवृत्ताभ्यामेकत्वलक्षणस्य तदर्थस्य बाधितत्वादनादिकाला भ्रान्तिरेव प्रत्यभिज्ञा। तन्न क्षणिकाभिव्यक्तिषु शब्दमात्रासु निर्विकल्पकप्रत्यभिज्ञावसितं स्थैर्यम् निर्विकल्पकस्य सविकल्पकस्य वा 10 संवेदन है, क्योंकि वस्तुमात्र स्वतत्त्वसंवेदनकालनिष्ठ ही भासित होती है, अन्यकालसंयोगी हो कर नहीं, क्योंकि अन्यकालादिसंयोगिरूप से यदि विवक्षितकाल में वह उद्भासित होगी तो वह सिर्फ अन्यकाल में ही प्रकाशात्मना सद्भूत मानी जायेगी, तब तो वह अन्यकालादिसंयोग ही वर्तमानता हो कर रहेगी, न की अतीतता। [ पूर्वकालयोगिता- एकत्व-प्रत्यभिज्ञा बेबुनियाद ] 15 अगर कहें कि अन्यकालादिसंयोग में कोई प्रकाशमानरूप (वर्त्तमानता) नहीं है, तो प्रकाशविरह ___ के कारण पूर्वकालादियोगिता का प्रतिभासन भी नहीं हो सकता, फलतः एकत्व का उपलम्भ भी न होने से प्रत्यभिज्ञा का आविर्भाव भी क्यों कर संभव होगा ? एकत्व की सिद्धि संवाद से होने की बात भी असिद्ध है। (स हि तदर्थान्तरवृत्ति एकत्वं पुनः ज्ञानवृत्तिः इत्युक्तम् - ऐसी पाठकल्पना करने से कुछ संगति बैठेगी) संवाद तो अन्य अर्थ में प्रवृत्तिशील है और एकत्व तो ज्ञानवृत्ति है, तो अन्यार्थवृत्ति 20 संवाद एकत्व का समर्थन क्यों कर करेगा ? दर्शन भी पुनः पुनः एक ही अर्थ में प्रवृत्त नहीं होता, वह तो तज्जातीय अन्य अर्थ में जब प्रवृत्त होता है, उसी समय तज्जातीय रूपता में संवाद होने से दृष्टा लोग को ऐसा अभिमान होता है कि मैं पूर्वदृष्ट (तत्त्व) को अध्यवसित करता हूँ। देखिये – ‘स एवायम्' ऐसी जो बुद्धि तज्जातीय विषय में होती है उस का मतलब है कि तदर्थसाध्यअर्थक्रियासाधक यह (वर्तमान) अर्थ है। तद् (पूर्वकालीन) अर्थसाध्य क्रिया 'तत्' (पूर्वकालीन) अर्थ से ही सिद्ध हो 25 ऐसा कोई नियम नहीं है, तज्जातीय अन्य अर्थ से भी वह सिद्ध हो सकती है - यह अनुभवगोचर है। जैसे :- तदर्थ के अलावा चक्षु आदि भी तदर्थजन्य ज्ञान के उत्पादनकारी होते हैं। तब ज्ञानोत्पादक होने से वहाँ चक्षु और अर्थ में भेद के रहते हुए भी ‘वही है यह' ऐसा एकत्व व्यवहार यथातथा प्रवृत्त होता है जो यथार्थ नहीं होता। अथवा यह भी ध्यान देने पात्र है कि पूर्व-अपर दर्शन अन्योन्य विषय के परिहार करते हुए ही प्रवृत्त होते हैं, अन्योन्य विषय को छूते ही नहीं, तो फिर 30 एकत्वरूप अर्थ में प्रवृत्ति स्पष्टतया बाधित होने से यही फलित होता है कि एकत्वाध्यवसायिनी अनादिकालीनवासनाजन्य प्रत्यभिज्ञा भ्रान्ति के अलावा कुछ नहीं है। ___अतः यह सिद्ध होता है कि क्षणमात्रप्रकाशी शब्दतत्त्वों में कतई स्थैर्य नहीं है जो कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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