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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ बलाद् निर्विकल्पकप्रत्यभिज्ञानस्य पूर्वदृष्टार्थाधिगन्तृत्वं व्यवस्थापयितुं शक्यम् । यदपि कैश्चिदभ्युपगम्यते (८-८) - निर्विकल्पकं ज्ञानमेकत्वग्राहि तदनन्तरभावि च सविकल्पकं प्रमाणमिति - तदपि प्रतिविहितमेव, निर्विकल्पकेनैकत्रं(?त्वाऽ)परिच्छेदात् स्वरूपप्रतिभासनं च निर्विकल्पकमुच्यते। सन्निहितमेव च स्वरूपमाभाति। असन्निहितप्रतिभासस्य च वस्त्वसंनिधेर्धान्तत्वात्, पूर्वदर्शनादिसम्बन्धिता च तदा सन्निहिता नास्ति। तद् न तत्र दर्शन(?)वृत्तिः स्मृतेरेव तत्र प्रवृत्तेः, पूर्वदर्शनवृत्त्याद्यगतेः स्मरणमन्तरेण, पूर्वदृगादिकं स्मरत एव ‘पूर्वदृष्टम्' इत्यध्यवसायोदयाद् विस्मरणे तदभावा(त्) स्मृतिविकलेन्द्रियजप्रतिभासस्य निर्विकल्पकत्वात्। [?? न *स्मृतिकृतदर्शनमविकल्पकज्ञानावसेयमेकत्वम् । अत एव कल्पनाज्ञानमप्येकत्वाध्यवसाये शुक्तिकायां रजतबुद्धि(वद)तत्त्वम्]। न च तत्र बाधकप्रवृत्तेर्भ्रान्तता सन्निहितविषये तु प्रत्यभिज्ञाने न कदाचिद् बाधावृत्तिरिति सत्यार्थता, यतस्तथापि यदि तत्त्वमधिकथं 10 (?गतं) भवेत् प्रथमदर्शने एव प्रतिभासेत, अप्रतिभासनादसत्यम् । __ निष्कर्ष :- एकत्व अध्यवसायी विकल्प के जोर से प्रत्यभिज्ञास्वरूप माने गये निर्विकल्प में पूर्वदृष्ट अर्थ की अवगाहकता का स्थापन नहीं किया जा सकता। [ एकत्वग्राही निर्विकल्प का निरसन ] यह जो पहले कुछ विद्वानों ने कहा था (८-२९) एकत्वग्राहि (प्रत्यभिज्ञात्मक) सिर्फ सविकल्प 15 ही नहीं, निर्विकल्प भी एकत्वग्राहि (प्रत्यभिज्ञात्मक) प्रमाण होता है - उस की भी प्रतिक्रिया अब पूर्वोक्तकथन से सिद्ध हो गयी। कारण, निर्विकल्प से पूर्वोत्तरक्षणों के एकत्व का उपलम्भ नहीं होता । निर्विकल्प कहते हैं स्वरूप (अपने तत्त्व) के परिच्छेद को। निर्विकल्प से जो स्वतत्त्व संनिहित होता है वही उपलब्ध हो सकता है। असंनिहित (उत्तरक्षण) का प्रतिभास तो भ्रान्ति है क्योंकि पहले क्षण में उस का संनिधान नहीं है। उत्तरक्षण में भी पूर्वदर्शन का संनिधान शक्य नहीं, अतः उस में दर्शन 20 का सम्बन्ध ही नहीं है। हाँ स्मति में वस्तसंनिधान जरूरी नहीं होने से स्मृति की पूर्वक्षण ग्रहण में प्रवृत्ति शक्य है। (किन्तु वह प्रमाण नहीं होती)। स्मृति के विना पूर्वदर्शन के सम्बन्ध का भान शक्य नहीं होता। अतः पूर्वदर्शन आदि याद करने वाले को ही ‘पहले देखा हुआ' ऐसा अध्यवसाय उदित होता है, याद नहीं करनेवाले को नहीं होता। फलित यह हुआ कि स्मृति से अस्पृष्ट इन्द्रियजन्य परिच्छेद ही निर्विकल्प होता है (जिस में पूर्वक्षण गृहीत नहीं होने से वह एकत्वग्राहि नहीं होता।) 25 [अतः स्पष्ट है कि स्मृति से किया गया बोध अविकल्प दर्शन नहीं है, तथा एकत्व अविकल्पज्ञानग्राह्य नहीं है। अत एव एकत्वाध्यवसायि कल्पनाज्ञान छीप में रजताध्यवसायि ज्ञान की तरह अतत्त्वभूत यानी अप्रमाण ही होता है। ] आशंका :- शुक्तिका में रजत का भान तो उत्तरकालीन बाधक उपस्थिति के कारण भ्रान्त कहलाता है, यहाँ प्रत्यभिज्ञान तो संनिहितविषयक होता है जिस में कोई बाधक का भय नहीं, अतः उसे सत्यार्थक मानना जरूरी है। उत्तर :- नहीं, बाध न होने पर भी संनिहित 30 विषय में यदि अभेद या पूर्वकालता का अधिगम होता तो प्रथमक्षण दर्शन में ही उस का भासन A. पूर्वमद्रित पाठान्तरमिदम् - स्मृतिकृतं दर्शनं विकल्पकमिति नाधिकल्पकल्पकज्ञानाव - वा० बा० । 'न स्मृतिकृतं दर्शनमविकल्पकम - नाऽविकल्पकज्ञानावसेयमेकत्वम्' - इति समीचीनपाठेन भवितव्यम् - इति प्रतिभाति । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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