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________________ ६८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ सर्व एवाऽऽभाति । साक्षात्करणं हि परिस्फुटता । तच्च सन्निहितप्रतिभासनम् असंनिहितस्य साक्षात्कर्तुमशक्यत्वात्। पूर्वदृष्टं(?टम)सन्निहितं रूपमिति न तद्ग्रहः प्रत्यक्षस्वभावः। अथापि स्यात् नोत्तरप्रत्यक्षे पूर्वदृष्टं रूपमाभाति किन्तु धर्मिरूपं नीलादिलक्षणम् । असदेतत्- पूर्वापरदर्शनप्रतिभासिस्वरूपव्यतिरिक्तस्य नीलादित्वस्य धर्मिणः तद्भदेऽप्यभिन्नस्याऽनुपलब्धेः । न हि पूर्वापरदृगवसेयं मुक्त्वा रूपमपरो नीलादिरूपो धर्मी प्रतिभाति, अप्रतिभासमानस्य नित्यत्वसाधने न काचित् क्षतिः, प्रतिभासस्यैव सर्वस्याऽनित्यत्वसाधनात्। तन्न अध्यवसायवशादध्यक्षस्य ग्रहणव्यवस्था इत्येके । __ अपरे तु मन्यन्ते - यद्यपि नीलाध्यवसायात् नीलदर्शनस्य तद्ग्रहणं व्यवस्थाप्यते तथापि लूनपुनर्जातकेशादिषु 'पूर्वदृष्टं पश्यामि' इत्यध्यवसायस्यान्यथापि प्रवृत्त्युपलब्धेः कथं तद्रूपार्थग्राह्यनुभव व्यवस्थापकत्वम् ? न च - विच्छेदाभिज्ञैस्तत्र भेदस्य ग्रहणादभेदग्राहिता मा भूद् अनुभवस्य तन्निबन्धना, 10 न पुनरिहैवं भेदावसायस्यैव कस्यचिदभावादि(ति) वक्तव्यम्, भेदावसाय एवात्र कस्यचिन्नास्तीत्यदर्शनमात्रादसिद्धेः । निश्चय के बल से यह सिद्ध नहीं होता कि दर्शन उस एकत्व का ग्राहक है, किन्तु दर्शन में जिस का प्रतिभास होता है उस के बल से दर्शन विषय का ग्राहक सिद्ध होता है। अन्यथा, एक और विकल्प (निश्चय) जब अश्वग्रहण करता है उसी समय संनिहित गो-संनिकर्ष होने पर दर्शन गौआ का ग्राहक सिद्ध नहीं हो पायेगा। सभी प्रतिभास पूर्वापरभाव का लोप करता हुआ वर्तमान अर्थ पर ही निर्भर होता है यह स्पष्ट 15 भासित होता है। स्पष्टता क्या है - साक्षात्कार । साक्षात्कार यानी संनिहित वस्तु का प्रकाशन । असंनिहित तत्त्व का साक्षात्कार होना असम्भव है। पूर्वदृष्ट रूप तो वर्तमान में असंनिहित है कैसे उस का प्रत्यक्षात्मक साक्षात् ग्रह होगा ? ___ यदि कहा जाय – 'उत्तरक्षण-दर्शन में हालाकि पूर्वदृष्ट रूप नहीं भासता किन्तु नीलादिस्वरूप (वही) धर्मी भासता है - अतः भेद नहीं रहेगा' - यह असार है। पूर्वापरदर्शनप्रकाशितस्वरूप से 20 अतिरिक्त कोई नीलादिक धर्मी से भिन्न नीलत्वादि अभिन्न एक सामान्य की उपलब्धि होती नहीं। जो पूर्वापरदर्शनग्राह्य व्यक्तिस्वरूप रूप भासता है उन से अतिरिक्त कोई नीलादि धर्मी का भान नहीं होता। जिन (असत् पदार्थों) का भान नहीं होता उन में नित्यत्व को सिद्ध करने पर आप सज्ज हैं तो उस में हमारा कोई नुकसान नहीं, हम तो सर्व प्रतिभासों (प्रतिभास्यों) के अनित्यत्व की सिद्धि कर रहे हैं। सारांश, अध्यवसाय (विकल्प) के बल से प्रत्यक्ष या उस के विषयग्रहण की सिद्धि दूरापास्त 25 है। - यह कुछ एक पक्ष के पंडितों का मन्तव्य दिखाया। [ नील के अध्यवसाय से नीलग्रहण का प्रश्न - अन्यमत ] कुछ लोग मानते हैं - हालाँकि नीलाध्यवसाय के बल से नीलदर्शन द्वारा नील का ग्रहण स्थापित किया जाता है - फिर भी काटने के बाद पुनः उग आने वाले केशादि में 'पूर्व में देखा था उसे देखता हूँ" इस प्रकार पूर्वदृष्ट के अभाव में भी उस के अध्यवसाय का प्रचार होता है, तब अध्यवसाय 30 के बल से अनुभव भी उसी अर्थ का ग्राहक है - ऐसी स्थापना कैसे ठीक हो सकती है ? - यदि यहाँ कहा जाय – 'जो लोग पूर्व केशविच्छेद को जानते हैं उन्हें वहाँ पूर्व केश और नवजात केशादि में भेद बुद्धि भलीभाँती होती है अतः जिस को विच्छेद का ज्ञान है उस का नवजात केश Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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