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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ प्रतिभातीति वक्तुं शक्यम्, ज्ञानद्वयाभावे तदवभासिनो रूपस्याप्यभावात्। यदेव हि ज्ञानमस्ति भवतु तदवभास्येव तद्रूपम् यत् तु नष्टज्ञानं न तदवभासि युक्तम् अन्यथा सकलातीतज्ञानावभासिरूपप्रतिभासप्रसक्तिरित्युक्तम् तस्मादिदानीन्तनज्ञानावभासमेवैतद्युक्तम्। न च निर्विकल्पके वर्तमानग्रहणे सति प्राक्तनज्ञानावभासिभावपरिच्छेदः समस्ति, विकल्पद्वयानतिवृत्तेः - यत: ‘सः' इति पूर्वपरिच्छेद: 'अयम्' इति प्रतिभासानुप्रवेशेन प्रतिभाति उताननुप्रवेशेन ? यद्याद्यः पक्षः, तदा ‘सः' (इ)ति वा परोक्षाकारः प्रतिभास: 'अयम्' इति वा वर्तमानमात्रावभासः। अथाननुप्रवेशेन प्रतिभासस्तदापि प्रतिभासद्वयं परस्परविविक्तमायातम्, तथा च तद्ग्राह्यस्यापि भेदः प्रतिभासभेदात् । न च तदवभासद्वयमेकाधिकरणम् परोक्षाऽपरोक्षरूपनिर्भासद्वयस्यैकाधिकरणत्वासिद्धेः, अन्यथा भिन्नाधिकरणसर्व संविदामेकाधिकरणत्वापत्तेः। तन्नैककालम् भिन्नकालं वा प्रतिभासद्वयमेकार्थम् प्रतिभासभेदात् । न चात्र 10 प्रतिभास एव भिन्नो न प्रतिभास्यः, तद्भेदे तदभेदाऽसिद्धेः। तथाहि न स्वतः प्रतिभास्याऽभेद: सिद्धः, स्वसंविन्मात्रप्रसक्तेः। नापि प्रतिभासात्, तस्य भिन्नत्वादिति नैकत्वसिद्धिः । उत्तरकालभाविनोऽपि दर्शनात् सन्निहितमात्रस्यैव तत्र प्रतिभासात् पूर्वकालादीनां तत्र प्रतिभासने ज्ञानद्वयप्रतिबिम्बित कोई रूप भी नहीं है, जो वर्तमान ज्ञान है उस में प्रतिबिम्बित रूप तो मान सकते हैं किन्तु जो नष्ट ज्ञान है उस के विषय का वर्तमान में अवभास होना शक्य नहीं। अन्यथा, सकल भूतकालीन 15 ज्ञानाप्रतिबिम्बित रूपों की वर्तमान में उपलब्धि प्रसक्ति होगी। फलित यह होता है कि वर्तमानरूप वर्त्तमानज्ञानावभासि ही है। ___ [ निर्विकल्प में पूर्वापर भावावभास के प्रति विकल्पद्वयी ] ___ जो निर्विकल्प वर्तमान दर्शन है उस में पूर्वकालीनज्ञानभासित भाव का प्रतिभासन नहीं होता, होगा तो दो प्रश्न खडे होंगे - १ 'वह' ऐसा जो पूर्वभाव का बोध है वह 'यह' इस प्रतिभासानुविद्ध होकर 20 भासित होता है ? २ या अननुविद्ध हो कर ? प्रथम पक्ष में, दो अनिष्ट गले पडेंगे। A या तो 'वह' इस प्रकार पूर्वभावबोध में परोक्षाकारता प्रसक्त होगी, B या तो 'यह' इस प्रकार वर्तमानमात्र का अवभास होगा। यदि २अननुविद्ध हो कर - यह पक्ष माना जाय तो परस्पर असम्बद्ध दो प्रतिभास फलित हो गये। अत एव उन के ग्राह्य विषयों का भी प्रतिभासभेदमूलक भेद सिद्ध हो गया। 'पूर्वापर दो प्रतिभास होने पर भी एक ही अधिकरण (यानी विषय) में मग्न है' - ऐसा भी नहीं है क्योंकि पूर्वदर्शनगृहीत 25 रूप परोक्ष है वर्तमानगृहीत अपरोक्ष है तो उन के अवभासकद्वय ज्ञानों में एकाधिकरणता हो नहीं सकती। अन्यथा, जितने भी भिन्नाधिकरणक (= भिन्नविषयक) संवेदन हैं उन सभी में एकाधिकरणता प्रसक्त होगी। सारांश, समकालीन या भिन्नकालीन दो पृथक् प्रतिभास एकार्थग्राही नहीं हो सकते, क्योंकि ग्राहक अलग है। ऐसा नहीं कह सकते कि – 'यहाँ प्रतिभास ही भिन्न है प्रतिभासित अर्थों में भेद नहीं' – क्योंकि प्रतिभासभेद के रहते हुए प्रतिभासित अर्थों में अभेद हो नहीं सकता। [प्रतिभास्यों के अभेद की सिद्धि का असम्भव ] अगर प्रतिभास विषयों का अभेद है तो वह स्वतःसंविदितप्रमाणभूत नहीं हो सकता, क्योंकि तब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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