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________________ ६२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ न तत्प्रतिभासिरूपग्रह: प्राक् । अथोत्तरकालभाविनी दृक् तस्योपलब्धिः (अ)युक्तमेतत्, यतो द्वितीयदृगपि स्वप्रतिभासिनमेव पदार्थात्मानमवभासयतु न पुनस्तत्त्वम् । यतस्तत्त्वं दृश्यमानस्यार्थस्य पूर्वदेशादिपरिगतत्वम् (दृष्टता) वा ???] न तावदाद्यः पक्षः, पूर्वदेशादीनामसन्निधानेनाऽप्रतिभासने तत्सम्बद्धस्यापि रूपस्याऽग्रहणात्। प्रत्यक्षेण 5 न चाऽसंनिहिता देशादयः प्रतिभान्ति दर्शनस्य निर्विषयत्वप्रसङ्गात्, सकलातीतभावपरम्परापरिच्छेदप्रसक्तेश्च कालत्रयप्रदर्शि प्रत्यक्षं भवेत् । न च तथाऽभ्युपगन्तुं युक्तम् अतीतादौ विशदप्रतिभासाभावात्, तमन्तरेण च प्रत्यक्षेणाऽग्रहणात्। न च पूर्वदेशादीनां तदा सन्निधानम्, सन्निधौ वा तद्दर्शने प्रतिभासनात् पूर्वरूपतात्यागः वर्त्तमानताप्राप्तः। न हि तद्दर्शनप्रतिभासनमन्तरेणान्या वर्तमानता नीलादीनामपि। तथापि पूर्वरूपत्वे वर्त्तमानव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः। न च पूर्वदेशादीनामप्रतिभासे तत्सम्बद्धरूपप्रतिभास: प्रत्यक्षतः सम्भवति, 10 अन्यथा सर्वदेशकाल-दशापरिष्वक्तभावावगमात् सर्व एव व्यापिनो नित्याः सर्वाकारस्वभावाः प्रसजन्ति । न करेगा तो सारे विश्व के ग्रहण का अतिप्रसंग सिर उठायेगा। जब वह प्रथम दर्शन मौजूद था तब पश्चाद् दर्शनादि की सत्ता ही नहीं थी फिर उस (पश्चाद् दर्शन) से गृहीत स्वरूप का पूर्व में ग्रहण प्रथम दर्शन से किस तरह हो सकेगा ? यदि कहें कि – 'उत्तर क्षण का दर्शन उस की उपलब्धि करेगा' - तो यह युक्त नहीं है, क्योंकि द्वितीयदर्शन भी स्व में भासमान पदार्थस्वरूप का ही प्रकाशन कर पायेगा, न कि 15 उस के ‘स एवायम्' यहाँ ‘स' से निर्दिष्ट तत्त्व को। कारण, तत्त्व से क्या अभिप्रेत है ? - दृश्यमान अर्थ की पूर्वदेशादिसंलग्नता या सिर्फ दृष्टता (= अतीतदर्शनग्राह्यता) ? . पहला पक्ष तो ठीक नहीं है क्योंकि पूर्वदेशादि उत्तर दर्शन के लिये संनिहित न होने से उस का प्रतिभास शक्य नहीं है अतः उस से सम्बद्ध रूप का भी ग्रहण नहीं हो सकता। प्रत्यक्ष असंनिहित देशादि में भासित नहीं हो सकते, क्योंकि तब दर्शन असत्ख्यातिरूप यानी निर्विषय हो जायेगा। अथवा भूतकालीन 20 सकल भाव सन्तान के बोध की प्रसक्ति होगी, तुल्यरूप से भविष्यकालीन की, इस तरह प्रत्यक्ष में त्रिकालभावप्रकाशन की प्रसक्ति होगी। ऐसा तो कोई भी मानने को नहीं चाहेगा क्योंकि भूत आदि भावों का किसी को भी स्पष्ट प्रतिभास होता नहीं। स्फुट प्रतिभास के विना प्रत्यक्षग्रहण होता नहीं। उत्तरक्षण में पूर्वदेशादि का संनिधान शक्य नहीं, शक्य होगा तो उस का प्रत्यक्ष में प्रतिभास भी स्वीकारना होगा, (यतः प्रत्यक्ष वर्तमानग्राही ही होता है अतः) पूर्वदेशादि में पूर्वरूपता के त्याग और वर्तमानता की प्रसक्ति 25 होगी। नीलादि भावों की भी वर्तमानता क्या है अपने दर्शन में प्रतिभास को छोड कर ? फिर भी पूर्वरूपता का आग्रह करेंगे तो प्रत्यक्ष में वर्तमानग्राहिता के व्यवहार के. या प्रत्यक्षविषय में वर्तमानता के व्यवहार के उच्छेद की आपत्ति होगी। पूर्वदेशादि का प्रतिभास न होने पर पूर्वेदेशादिसम्बद्ध भावस्वरूप का प्रत्यक्ष से भान सम्भव नहीं। अन्यथा सर्वदेश-काल-दशासम्बद्ध भावों का बोध हो जाने से, उन भावों की सर्वदेशकालादि सम्बन्धिता 30 सिद्ध होने से उन भावों को विश्वव्यापक एवं कालव्यापक यानी नित्य एवं सर्वआकार-प्रकार से संयुक्त मानने __का अनिष्ट खडा होगा। शंका :- ऐसा अनिष्ट नहीं होगा, क्योंकि भावों की प्रतीति नियतदेशसंलग्नता से ही होती है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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