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________________ ६० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १ यु)क्तम् अन्यथा “निष्पादितक्रिये कर्मविशेषाधायि कथं साधनं स्यात् ? ??] यत्तु – 'इदानींतनमस्तित्वं न हि पूर्वधिया गतम् ' ( श्लोकवार्तिक प्र० २३४ पू० ) इत्युक्तम् (७-८) ' - तद्युक्तमेव इदानीं (त) नत्वस्य भेदात् । अन्यथा प्राक्तनविकल्पबुद्ध्या वस्त्वव्यतिरेकि इदानींतन्ना (? ना)स्तित्वस्य कथमग्रहणम् ? यदि च सविकल्पकं प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षमर्थग्राहकमभ्युपगम्यते तदा सर्वात्मनाऽर्थस्य निश्चितत्वात् 5 प्रमाणान्तरप्रवृत्तेर्वैयर्थ्यप्रसक्तेरिति विचारितमन्यत्रेतीह न प्रतन्यते । यैस्तु निर्विकल्पकं प्रत्यभिज्ञाज्ञानं प्रमाणतयाऽभ्युपगतम् (८-८) तेषां तदुत्तरकालभाविसविकल्पकाध्यक्षप्रायो घटादिविषयः प्रमेयातिरेकाभावात् कथं प्रमाणतामश्नुवीत ? न च प्रमेयातिरेकमन्तरेणापि संदिग्धवस्तु-निश्चयनिबन्धनत्वा (त्) प्रमाणमसो, निर्विकल्पक-सविकल्पकयोरक्षजप्रत्यययोर्नियतपौर्वापर्ययोरपान्तराले सन्देहाऽसम्भवात् तदपाकरणाभावाद् न निर्विकल्पप्रत्यक्षेण समाना [? ? प्रत्यभिज्ञानेनैकत्वमवगन्तुं शक्यम् । यतोऽर्थसाक्षात्कारि प्रत्यक्षं लोके प्रतीतम् 10 निर्विकल्प ज्ञान जो शुद्धवस्तुरूप आलम्बन से जन्म लेता है, उस के बाद सविकल्पप्रत्यक्षज्ञान होता है (यहाँ कालान्तरं सविकल्पकप्रत्यक्षाभ्युपगमात् इतना पाठ अधिक लिखित लगता है) उस से वस्तु के कालान्तर - देशान्तर भाव भी वस्तुनिश्चय के साथ निश्चित हुआ रहता है तो फिर वहाँ आप के मतानुसार उस का संदेह, उस के निरसन से प्रत्यभिज्ञा का प्रामाण्य कैसे हो सकता है। जो निश्चय से गृहीत हो चुका है उस विषय के बारे में कुछ भी अनिश्चित रह नहीं पाता, (वस्तु अगर कालान्तरवृत्ति 15 होगी तो) वस्तुग्रहण के साथ कालान्तरादिसद्भाव अव्यतिरिक्त होने से गृहीत हो जाता है ऐसा नहीं मानेंगे तो वस्तु से कालान्तरादिसद्भाव का भेद प्रसक्त होगा । निष्कर्ष संदेहनिरसन नहीं, प्रमेयाधिक्य ही प्रामाण्य का मूल कहा जा सकता है । अन्यथा अर्थक्रिया निष्पन्न हो जाने पर कर्म (क्रिया) विशेषाधानकारि को ( प्रमा का) साधन ( = करण ) क्यों न माना जाय ? (तत्त्वसंग्रह का० ४५१ में कहा है -) 20 - Jain Educationa International [ इदानींतन अस्तित्व का पूर्वबुद्धि से अग्रहण कैसे ? ] यह जो कहा था (७-२० ) अद्यतन अस्तित्व का ग्रहण तो पूर्वबुद्धि से नहीं हुआ था.... इत्यादि वह तो संगत ही है। क्यों कि वह पूर्वक्षणपदार्थ से भिन्न ही है । यदि वह पूर्वक्षणपदार्थ से अभिन्न होता तो पूर्वतनविकल्पबुद्धि से वर्त्तमानकालीन अस्तित्व का ग्रहण क्यों नहीं होता ? यदि सविकल्पक प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष को आप अर्थग्राहक प्रमाण मानते तो उस से ही समस्तरूप से अर्थ का निश्चय हो जाने से 25 निर्विकल्पप्रत्यक्ष आदि अन्य प्रमाणों की प्रवृत्ति निरर्थक ठहरेगी। कुछ लोग तो निर्विकल्प प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष को भी प्रमाण मानते हैं (८-२९), उन के मत में घटादिविषयक निर्विकल्पप्रत्यभिज्ञा-उत्तरकालभावि सविकल्पप्रत्यक्षतुल्यज्ञान प्रमाण कैसे बनेगा जब कि प्रमेय तो उस का कोई नया है नहीं ? ऐसा कहें कि 'प्रमेय नया न होने पर भी संदिग्ध पदार्थ का निश्चय कारक होने से वह 'प्रमाण' बनेगा ' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि एक तथ्य सुविदित है कि इन्द्रियजन्य निर्विकल्प सविकल्प दो प्रत्यक्ष के बीच 30 में किसी संदेह का अस्तित्व ही नहीं होता जिस का निवारण करने से वह प्रत्यभिज्ञा निर्विकल्पप्रत्यक्ष की कक्षा में बैठ सके । (यहाँ से आगे ? ? प्रत्यभि ..... पाठ - अशुद्धि के कारण यथामति विवरण किया जाता *. निष्पादितक्रिये चार्थे प्रवृत्तेः स्मरणादिवत् । न प्रमाणमिदं युक्तं करणार्थविहानित: ।। तत्वसं. ४५१ । । — For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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