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________________ खण्ड-३, गाथा-५४ कथयेत् । किमित्येकमेव कथयेत् ? परिकर्मनिमित्तं , बुद्धिसंस्कारार्थम् । परिकर्मितमतये दर्शयिष्यत्यसो स्याद्वादाभिज्ञ: विशेषमपि द्रव्य-पर्याययोः परस्पराऽविनिर्भागरूपम्, एकांशविचयविज्ञानस्यान्यथा विपर्ययरूपताप्रसक्तिः स्यात् तदितराभावे तद्विषयस्याप्यभावात् ।।५४ ।। इति तत्त्वबोधविधायिन्यां सम्मतिटीकायां प्रथमकाण्डम् ।। द्रव्य को पकड कर बैठा है उस के प्रति केवल पर्याय का निरूपण करे। प्रश्न :- क्यों ऐसे केवल एक का कथन करे ? उत्तर :- श्रोता की (या शिष्य की) बुद्धि की परिकर्मणा (शिष्यबुद्धिवेशद्य) के लिये स्याद्वादविज्ञ वक्ता किसी एक का निरूपण कर सकता है। हाँ, जब श्रोता परिकर्मित बुद्धिवाला हो जायेगा तब उस के सामने विशेष प्ररूपणा भी करेगा - यानी द्रव्य और पर्याय दोनों परस्पर अविभाज्य हैं यह भी दिखायेगा। कारण :- उभयात्मक पदार्थ का उभयरूप से बोध या निरूपण करने के बदले एकांशविषयक ही बोध या निरूपण करेगा तो उस बोध में या निरूपण में विपरीतता प्रसक्त होगी क्योंकि अन्य 10 अंश के विना ज्ञात या निरूपित अंश की हस्ती ही नहीं हो सकती।।५४ ।।। इस प्रकार सम्मति० ग्रन्थ की तत्त्वबोधविधायिनी टीका का प्रथम काण्ड समाप्त हुआ। सिद्धान्तमहोदधि-प.पू.आ.प्रेमसूरीश्वर-पट्टधरन्यायविशारद प.पू.आ.भुवनभानुसूरिपट्टधरसिद्धान्तदिवाकर प.पू. गीतार्थमूर्धन्यआ. श्री विजय जयघोषसूरिशिष्य आ. जयसुंदरसूरिविरचित हिन्दीविवेचन समाप्त। वि.सं. २०६६ श्रा.सु. ५ रविवारे श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथजैनसंघे घाटकोपर (पूर्व) मध्ये जयालक्ष्मी जैन आराधना 15 भवने । शुभं भवतु। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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