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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ अस्य च मिथ्यात्वादिपरिणतिवशोपात्तपुद्गलाङ्गाङ्गिभावलक्षणो बन्धः तद्वशोपनतसुख-दुःखाद्यनुभवस्वरूपश्च भोग: अनेकान्तात्मकत्वे सत्युपपद्यते अन्यथा तयोरयोगः इति प्रतिपादनार्थमाह- दव्वट्ठियस्स इत्यादि अथवा परस्परसापेक्षद्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकयोः प्ररूपणा प्रदर्शितन्यायेन सम्भविनी निरपेक्षयोः कथं 5 सा ? इत्याह (मूलम्-) दव्वट्ठियस्य आया बंधइ कम्मं फलं च वेएइ। बीयस्स भावमेत्तं ण कुणइ ण य कोइ वेएइ ।।५१ ।। द्रव्यास्तिकस्येयं प्ररूपणा - आत्मा एकः स्थायी कर्म ज्ञानादिविबन्धकं बध्नाति = स्वीकरोति, तस्य कर्मणः फलं च कार्यरूपं वेदयते = भुङ्क्ते आत्मैव। द्वितीयस्य तु पर्यायार्थिकस्येयं प्ररूपणा - 10 नैवात्मा स्थाय्यस्ति किन्तु भावमात्रं = विज्ञानमात्रमिति न करोति न च कश्चित् वेदयते उत्पत्तिक्षणानन्तरध्वंसिनः कर्तृत्वाऽनुभवितृत्वायोगात् ।।५१ ।। तथेयमपि तयोस्तथाभूतयोः प्ररूपणेत्याहके व्यवहारों का पूरा लोप प्रसक्त होगा। अतः आत्मद्रव्य को मूर्त्त-अमूर्त आदि अनेकान्तमय स्वीकार लेना ही चाहिये ।।५०।। 15 अवतरणिका (१) – आत्मा को अनेकान्तस्वरूप मानने पर आत्मा को मिथ्यात्वादि आश्रवपरिणति से आकर्षित कर्म पुद्गल का अङ्गाङ्गिभावस्वरूप बन्ध होना घट सकता है। तथा कर्मपुद्गल के उदय से प्राप्त सुख/दुःखादि अनुभवात्मक भोग भी घट सकता है। अनेकान्तात्मक न मानने पर बन्ध और भोग की संगति नहीं हो सकती। इस तथ्य को दिखाने के लिये गाथा ५१ में दव्वट्ठियस्स इत्यादि कहते हैं - 20 अवतरणिका :- (२) अथवा अनेकान्तसाधक उक्त विस्तृत युक्तियों के बल से परस्पर सापेक्ष द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिक नयों की प्ररूपणा संगत हो सकती है। परस्परनिरपेक्ष नयों के पक्ष में उस का सम्भव ही कहाँ ? - यही दिखाते हैं - गाथार्थ :- द्रव्यार्थिक नयानुसार आत्मा कर्म बाँधता है और फल भोगता है। पर्यायार्थिक नय से (क्षणिकविज्ञानस्वरूप) भावमात्र है (अतः) न कोई (बन्ध) करता है और न कोई भोगता है। व्याख्यार्थ :- द्रव्यास्तिक नयानसार प्ररूपणा ऐसी है कि एक (प्रत्येक) आत्मा स्थायी है, वह ज्ञानादिप्रतिबन्धक कर्मों का बन्ध यानी उपार्जन करता है। तथा उस कर्म का कार्यरूप फल भी वही आत्मा भोगता है। द्वितीय पर्यायार्थिकनय का मत ऐसा है - आत्मा स्थायी नहीं है किन्तु भावमात्र क्षणिकविज्ञानस्वरूप ही है। अतः न तो वह कर्म का कर्ता है न तो उस के फल का भोक्ता है क्योंकि उत्पन्न होते ही दूसरे क्षण में नष्ट हो जाने से कर्तृत्व और उपभोक्तृत्व का योग उस में संभव नहीं 30 है।।५१।। [ दोनों नयों के अनुसार कर्ता-भोक्ता का अभेद और भेद ] अवतरणिका :- उक्त प्रकारवाले दोनों नयों की एक और प्ररूपणा को कहते हैं - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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