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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ सत्त्वलक्षणस्यापि हेतोर्गमकत्वमनेनैव प्रकारेण सम्भवति, अन्यथा उत्पत्त्यभावात् स्थित्यभावः, तदभावे विनाशस्याप्यभावः, असतो विनाशायोगात् – इति त्र्यात्मकमेकं वस्त्वभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा तदनुपपत्तेरिति प्राक् प्रदर्शितत्वान पुनरुच्यते । यथा चात्मनः परलोकगामित्वं शरीरमात्रव्यापकत्वं च तथा प्रतिपादितमेव (प्रथमखण्डे पृ०२९३)। ननु शरीरमात्रव्यापित्वे तस्य गमनाभावाद् देशान्तरे तद्गुणोपलब्धिर्न भवेत् । 5 न, तदधिष्ठितशरीरस्य गमनाविरोधात्, पुरुषाधिष्ठितदारुयन्त्रवत्। न च मूर्त्तामूर्तयोघटाकाशयोरिव प्रतिबन्धाभावात् मूर्तशरीरगमनेपि नामूर्तस्यात्मनो गमनम् इति वक्तव्यम्, संसारिणस्तस्यैकान्तेनाऽमूर्त्तत्वासिद्धेः, तत्प्रतिबद्धत्वाभावासिद्धेः ।।४६।। एतदेवाह(मूलम्-) अण्णोण्णाणुगयाणं 'इमं व तं व' त्ति विभयणमजुत्तं । जह दुद्ध-पाणियाणं जावंत विसेसपज्जाया।।४७।। अन्योन्यानुगतयोः = परस्परानुप्रविष्टयो: आत्म-कर्मणो: 'इदं वा तद् वा' इति = 'इदं कर्म अयमात्मा' इति यद् विभजनं तद् अयुक्तम् = अघटमानकम् प्रमाणाभावेन कर्तुमशक्यत्वात्। यथा दुग्ध क्षणिकत्व के साधक सत्त्व हेतु का भी गमकत्व त्रि-आत्मकत्व पर ही निर्भर है। अन्यथा, उत्पत्ति के विना स्थिति का लोप और स्थिति के विना विनाश का भी लोप प्रसक्त होगा, क्योंकि असत् 15 का कभी विनाश नहीं होता। अतः वस्तु मात्र को त्रि-आत्मक मानना ही होगा, अन्यथा सत्त्व में गमकत्व की संगति नहीं हो सकेगी यह पहले कह दिया है अतः पुनरुक्ति का काम नहीं। त्रि-आत्मक आत्मा किस तरह परलोकप्रवासी होता है और कैसे शरीरमात्र व्यापक होता है यह पहले (खंड १ पृ० २९३ आदि) में कहा जा चुका है। यदि कहें कि – ‘आत्मा शरीरमात्रव्यापी होगा तो अन्य देश में उस के ज्ञानादि गुणों का उपलम्भ नहीं होगा क्योंकि आत्मा गतिकारक नहीं होता।' – तो 20 यह निषेधार्ह है क्योंकि आत्माधिष्ठित शरीर हो तब शरीरगति से आत्मा की भी गति हो सकती है जैसे दारुयन्त्र (शकट) की गति से तदधिष्ठाता किसान की भी गति होती है। ऐसा मत कहना कि - घट और आकाश की तरह मूर्त्त और अमूर्त का सम्बन्ध न होने से (घट की गति होने पर भी गगन की गति नहीं होती उसी तरह) मूर्त्त शरीर की गति होने पर भी अमूर्त आत्मा की गति नहीं हो पायेगी।' – निषेध का कारण:- सिद्धात्मा अमूर्त एवं शरीरमुक्त होने से उन की गति 25 नहीं होती किन्तु संसारी आत्मा एकान्त अमूर्त नहीं होता, किन्तु कथंचिद् मूर्त भी होता है अतः देह से सर्वथा अप्रतिबद्धत्व असिद्ध है।।४६ ।। अन्योन्यानुविद्ध मूर्त्तामूर्त को ही स्पष्ट करते हैं - गाथार्थ :- अन्योन्यप्रविष्ट (आत्मा और कर्म) में यह (जीव) - और वह (कर्म या शरीर) ऐसा विभाजन अयुक्त है। (चरम) विशेषपर्यायों तक जैसे दूध और पानी का।।४७।। व्याख्यार्थ :- एक-दूसरे आत्मा और कर्म का अन्योन्यप्रवेश है तब तक 'यह कर्म है - यह आत्मा है' ऐसा पृथक् विभागीकरण घट नहीं सकता क्योंकि प्रमाणसिद्ध नहीं है। उदा० एक-दूसरे में प्रदेशों का अनुप्रवेशवाले दूध और जल का। प्रश्न :- जीव और कर्मप्रदेशों का यह अविभाग कहाँ तक 30 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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