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________________ ३६४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ प्रतीयमाने वस्तुस्वरूपे विरोधः, अन्यथा ग्राह्य-ग्राहकाकाराभ्यामेकत्वेन स्वसंवेदनाध्यक्षतः प्रतीयमानस्य संवेदनस्य विरोधप्रसक्तेः । न, च संशयदोषप्रसक्तिरपि उत्पत्ति-स्थिति-निरोधानां निश्चितरूपतया वस्तुन्यवगमात् । न च 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इति प्रतिपत्ताविव प्रकृतनिश्चये 'सामान्यप्रत्यक्षात् विशेषाऽप्रत्यक्षात् विशेषस्मृतेश्च संशयः' [वैशे० द०-२।२।१७] इति निमित्तमस्ति । न च व्यधिकरणतादोषासक्तिरपि, घटकपालविनाशोत्पादयोम॒द्रव्याधिकरणतया प्रतिपत्तेः । न चोभयदोषानुषङ्गः, त्र्यात्मकस्य वस्तुनो जात्यन्तरत्वात्। सङ्करदोषप्रसक्तिरपि नास्ति, अनुगत-व्यावृत्त्योस्तदात्मके वस्तुनि स्वस्वरूपेणैव प्रतिभासनात् । अनवस्थादोषोपि न सम्भवी भिन्नोत्पाद-व्यय-ध्रौव्यव्यतिरेकेण तदात्मकस्य वस्तुनोऽध्यक्षे स्वयमतदात्मकस्यापरयोगेपि तदात्मकतानुपपत्तेरन्यथातिप्रसङ्गात् । तथाप्रतिभासादेव अभावदोषोऽपि न सम्भवी अबाधि तप्रतिभासस्य तदभावेऽभावात्, भावे वा न ततो वस्तुव्यवस्थितिरिति सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः । 10 दर्शनकारों ने अनेकान्तवाद पर विरोधादि आठ दोष थोप दिया है - उन का अब व्याख्याकार निराकरण करते हैं कि विरोध नहीं है।) मिट्टी द्रव्य एक है, घट और कपाल ये मिट्टी के पर्याय मिट्टी द्रव्य से पृथक् नहीं है। कपालापेक्षा मिट्टी की उत्पत्ति, घटापेक्षा मिट्टी का नाश और द्रव्यापेक्षा मिट्टी की स्थिति इस तरह मिट्टी द्रव्य अन्योन्यविरोधीस्वभावात्मक एकरूप से अनुभवसिद्ध है फिर विरोध कहाँ ? अनुभवसिद्ध वस्तुस्वरूप में विरोधपिशाच को प्रवेश ही नहीं है। फिर भी विरोध... विरोध ... 15 करेंगे तो एक ही संवेदन में स्वसंविदित प्रत्यक्ष से अन्योन्यविरुद्ध ग्राह्याकार-ग्राहकाकार युक्त होने पर भी एकत्व अनुभवसिद्ध है उस में विरोध का प्रवेश हो जायेगा। उत्पन्न है विनष्ट भी है ऐसे स्याद्वाद में संशय दोषापत्ति भी नहीं है क्योंकि एक वस्तु में उक्त प्रकार से उत्पत्ति-स्थिति-व्यय निश्चितरूप से ज्ञात होते हैं। यह ट्ठा है या आदमी' इस संशय में तो वैशेषिक दर्शन के सूत्र (२-२-१७) अनुसार सामान्यदर्शन, विशेषादर्शन तथा विशेषद्वय की स्मृति 20 ये निमित्त होते हैं, किन्तु प्रस्तुत निश्चय में वैसा कोई निमित्त नहीं होने से 'संशय' आपत्ति निरवकाश है। व्यधिकरणता दोष :- नाश घट का है, उत्पत्ति कपाल की है और स्थिति मिट्टी की है, तीनों ही उत्पत्ति आदि व्यधिकरण है तो एक में अनेक विरुद्धधर्म समावेश रूप अनेकान्त कहाँ रहा ? यह दोष भी निरवकाश है; एक मिट्टी द्रव्य अधिकरण में घटनाश और कपाल की उत्पत्ति के अधिकरणरूप से मिट्टी की प्रतीति होती है। 25 प्रत्येकपक्ष में होनेवाले दोष, उभयपक्ष में प्रसक्त होंगे ऐसा भी नहीं है क्योंकि स्याद्वाद में जो तथाकथित उभय पक्ष है। वह प्रत्येकरूप नहीं किन्तु जात्यन्तररूप ही है। असमानाधिकरण तथा कथित विरोधी धर्मों के एकत्र समावेश मानने पर संकर दोष का आरोपण भी जूठा है क्योंकि अपेक्षाभेद से एकाधिकरण में रहनेवाले तथाकथित विरुद्ध धर्मों की अनुवृत्ति और व्यावृत्ति अपने अपने स्वरूप से जब स्पष्ट भासित होती है तब दोष क्या है ? वस्तु में उत्पादादिलक्षण, उन लक्षण के भी उत्पादादि 30 लक्षण... इस तरह अनवस्था दोष का आरोपण भी अनुचित है क्योंकि उत्पादादि वस्तु से भिन्न नहीं है जिस से कि उन के उत्पादादि मानने पर अनवस्था प्रसक्त हो, उत्पादादित्रयात्मक ही वस्तु प्रत्यक्ष में भासित होती है। वस्तु स्वयं यदि उत्पादादिमय नहीं होगी तो भिन्न उत्पादादि से भी तदात्मकता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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