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खण्ड-३, गाथा-४६ शरीरवैलक्षण्येनानुभूतेः। न च तथाप्रतीयमानस्याप्यभावः शरीरादेरपि बहिर्मुखाकारतया प्रतीयमानस्याभावप्रसक्तेः । न च नित्यैकान्तरूपे आत्मनि जन्म-मरणे अपि संभवतः कुतो बन्ध-मोक्षप्रसक्तिः ? न च नित्यस्याप्यात्मनोऽभिनवबुद्धिशरीरेन्द्रियैर्योगो जन्म तद्वियोगो मरणमिति कल्पना सङ्गता, अस्याः पूर्वं निषिद्धत्वात्। न चैकान्तोत्पादविनाशात्मके चित्ते इहलोक-परलोकव्यवस्था बन्धादिव्यवस्था वा युक्ता यत ऐहिककायत्यागेनाऽऽमुष्मिकतदुपादानमेकस्य परलोकः पूर्वग्रामपरित्यागावाप्ततदन्तरैकपुरुषवत्। न च 5 दृष्टान्तेप्येकत्वमसिद्धम् उभयावस्थयोस्तस्यैकत्वेन प्रतिपत्तेः। न चेयं मिथ्या बाधकाभावात् विरुद्धधर्मसंसर्गादेबर्बाधकस्याध्यक्षबाधादिना निरस्तत्वात्।। ___न च पूर्वावस्थात्याग एकस्योत्तरावस्थापादानमन्तरेण दृष्टा, पृथुबुध्नोदराद्याकारविनाशवत् मृद्रव्यस्य सिद्ध हुआ। तदुपरांत, जन्म समय में चित्त (= चेतना) का आविर्भाव भूत (= विगत) चित्तस्थितिविनाशसंलग्न है क्योंकि चित्तप्रादुर्भावात्मक है, जैसे मध्या(= युवा)वस्था का चित्तप्रादुर्भाव (युवावस्था के चित्त के 10 प्रादुर्भाव के पहले बाल्यावस्था के चित्त की स्थिति अवश्य थी, उस के विनाश के बाद मध्य यानी युवावस्था के चित्त का प्रादुर्भाव होता है। इस दृष्टान्त से पूर्वभवचेतना का ऐक्य सिद्ध होता है।) यदि विगतचित्त (बालचित्त) की स्थिति और विनाश नहीं मानेंगे तो मध्यावस्था (युवा) चित्त का भी सत्त्व लुप्त हो जायेगा। 'मध्यावस्था का अभाव भी मान लेंगे' यह नहीं चलेगा, क्योंकि हर्ष-विषाद आनंद-शोक... इत्यादि अनेक विवर्त्तमय, अन्यों के लिये परोक्ष, चेतनतत्त्व (बाल या मध्यादि अवस्था 15 में) शरीरभिन्नत्वेन अन्तर्मुखतया स्वसंविदित प्रत्यक्ष से अनुभवसिद्ध है। अनुभवसिद्ध का भी इनकार करेंगे तो बहिर्मुख आकार से प्रतीत होनेवाले शरीरादि का भी निषेध प्रसक्त होगा।
[ एकान्तनित्य आत्मवाद में जन्मादि लोप की आपत्ति ] नैयायिकादि कहें कि आत्मा का स्वीकार तो कर लेते हैं किन्तु वह एकान्त नित्य माना जाय- अरे ! तब तो आत्मा के जन्म-मरण का भी लोप हो जायेगा, फिर बन्ध और मोक्ष की तो बात कहाँ ? 20
नैयायिक :- नित्य आत्मा के साथ नये नये शरीर-इन्द्रिय और तज्जन्य ज्ञान का योग ही जन्म है और उन का वियोग ही मरण है।
जैन :- यह कल्पना असंगत है पहले इस का निरसन हो चुका है। चित्त के उत्पाद-विनाश के बारे में एकान्तवाद स्वीकारेंगे तो न तो इहलोक-परलोक की संगत व्यवस्था होगी, न बन्धादि की। कारण :- परलोक का मतलब है इहलौकिक काया का त्याग कर के किसी एक जीव द्वारा पारलौकिक 25 देह को अपनाना। जैसे कोई ग्रामीण पुरुष अपने एक गाँव को अलविदा कर के दूसरे गाँव रहने को चला जाय। मत कहना कि – 'यहाँ गाँव भेद से पुरुष भिन्न है एक नहीं' – क्योंकि पूर्वोत्तरग्रामनिवास अवस्थाओं में भी एक पुरुष अनुगत होने की प्रतीति सभी को होती है। मत कहना कि 'वह प्रतीति मिथ्या है', क्योंकि उस में कोई बाधक नहीं है, संभवित बाधक विरुद्ध धर्मसंसर्ग तो यहाँ प्रत्यक्षबाधित होने से निरस्त है।
। कपालोत्पत्ति घटविनाश कथंचिद एक 1 किसी भी एक पदार्थ में पूर्वावस्था का परित्याग उत्तरावस्था अंगीकार के विना दृष्टिगोचर नहीं
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