________________
खण्ड-३, गाथा-३५
३३५
वस्तुसत्त्वस्य परिच्छेत्तेति यावत्। तथाहि- प्रमाणपरिच्छिन्नं तथैवाऽविसंवादि वस्तु प्रतिपादयन् वस्तुनः प्रतिपादक इत्युच्यते। न च तथाभूतं वस्तु केनचित् प्रतिपन्नं प्राप्यते वा येन तथाभूतं तद्वचः तत्र प्रमाणं भवेत् तथाभूतवचनाभिधाता वा तज्ज्ञानं वा प्रमाणतया लोके व्यपदेशमासादयेत् ।।३५ ।।
[ गाथापञ्चकेन सप्तभंगीस्वरूपनिरूपणार्थमारम्भः ] 'परस्पराक्रान्तभेदाभेदात्मकस्य वस्तुनः कथञ्चित् सदसत्त्वमभिधाय तथा तदभिधायकस्य वचस: 5 पुरुषस्यापि तदभिधानद्वारेण सम्यग्मिथ्यावादित्वं प्रतिपाद्य, अधुना भावाभावविषयं तत्रैवैकान्तानेकान्तात्मकमंशं प्रतिपादयतो विवक्षया सुनय-दुर्नय-प्रमाणरूपतां तत्प्रतिपादकं वचो यथानुभवति तथा प्रपञ्चतः प्रतिपादयितुमाह
यद्वा, यथैव तद् वस्तु व्यवस्थितं तथैव- बौद्ध-कणभुजामिव अभिन्न-भिन्न-परस्परनिरपेक्षोभयवस्तुस्वरूपाभिधायिनामर्हन्मतानुसारिणामपि ‘स्यादस्ति' इत्यादिसप्तविकल्परूपतामनापन्नवचनं वक्तृणां 10 स्यात्कारपदाऽलाञ्छितवस्तुधर्म प्रतिपादयतामनिपुणता भवेदिति प्रपञ्चतः सप्तविकल्पोत्थाननिमित्तमुपदर्शयितुं गाथासमूहमाहसाथ अविसंवादी वस्तु का प्रतिपादन करता हो। एकान्तगर्भित किसी एक ही प्रकारवाली वस्तु कदापि किसी ने भी न तो कभी नजर में लिया है न तो ले रहा है, जिस से कि उस का एकान्तवस्तुप्रतिपादक वचन प्रमाण गिना जा सके; अथवा एकान्तवादनिरूपक वक्ता अथवा उस का ज्ञान ‘प्रमाण' की मुहर 15 प्राप्त कर सके ।।३५ ।।
गाथा ३६ से ४० में अनेकान्तदर्शनप्रसिद्ध सप्तभंगी प्रमाण का निरूपण किया गया है। यहाँ ३६ वीं गाथा की अवतरणिका दो प्रकार से व्याख्याकार दिखाते हैं -
(१) ग्रन्थकार ने अब तक अन्योन्यअनुविद्ध भेदाभेदात्मक वस्तु में कथंचित् सत्त्व-असत्त्व का निदर्शन किया। तथा, एकान्तवादनिरूपक वचन अथवा पुरुष एकान्तवादनिरूपक होने से मिथ्यावादित्व 20 एवं अनेकान्तवादनिरूपक वचन अथवा पुरुष का सम्यग्वादित्व का निरूपण ग्रन्थकार ने कर दिया । अब विस्तार से यह दिखाना है कि जब वक्ता भावाभावविषयक निरूपण करता है, उस में भी एकान्तअनेकान्तात्मक अंश का निरूपण करता है, तब उस के वचन विवक्षा के अनुसार कैसे दुर्नय होता है, कैसे सुनय बनता है और कैसे प्रमाण बन जाता है -
(२) अथवा, ३६ आदि गाथावृंद से ग्रन्थकार यह दिखाना चाहते हैं कि जो वस्तु जिस प्रकार 25 से अवस्थित होती है उस का उसी प्रकार से निरूपण करनेवाला वक्ता निपुण कहा जाता है। अन्यप्रकार से निरूपण करनेवाले सांख्य-बोद्ध-वैशेषिक जो एकान्त अभिन्न या एकान्तभिन्न अथवा एकान्ततः सर्वथा निरपेक्ष पृथक् भेद और अभेद वस्तु के प्रतिपादक हैं वे अनिपुण ठहरेंगे। एवं तथाकथित जैनमतावलम्बि जन भी यदि ‘स्याद् अस्ति' (कथंचित् सत् है) इत्यादि सप्त विकल्प विनिर्मुक्त स्यात्कारपद अविभूषित वस्तुधर्म का प्रतिपादन करनेवाले वक्ता भी ‘अनिपुण' ही कहा जायेगा। इन के सामने सप्तभंगी वचन 30 कैसे बनता है और उन भंगो के उत्थान का निमित्त क्या है यह विस्तार से दिखाने के लिये गाथापञ्चक .सप्तभंगीविशेषजिज्ञासभिः शास्त्रावार्तासमच्चये सटीकसप्तमस्तबके हिन्दीविवेचनयुते पृ.१५३ तः पृ.१७८ मध्ये द्रष्टव्यम् ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org