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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १ ३२० वा ? यद्यशब्दात्मका नार्थप्रतिपत्तिहेतवः । अथ शब्दस्वभावास्तत्रापि यदि गो-शब्दस्वभावास्तदा गोशब्दानेकत्वप्रसक्तिः । अथ अगोशब्दस्वरूपा न तर्हि गवार्थप्रत्यायका भवेयुः । अथाऽव्यतिरिक्तास्तदा स्फोट एव संस्कृत इति सर्वदेशावस्थितैर्व्यापिनस्तस्य प्रतिपत्तिप्रसक्तिरिति पूर्वोक्तमेव दूषणम् । किञ्च, एकदेशावरणापाये स्फोटस्य खण्डशः प्रतिपत्तिः प्रसज्येत । अथ स्फोटविषयसंविदुत्पादस्तत्संस्कारः सोऽपि न 5 युक्तः, वर्णानामर्थप्रतिपत्तिजनन इव स्फोटप्रतिपत्तिजननेऽपि सामर्थ्याऽसम्भवात्, न्यायस्य समानत्वात् । यदि च स्फोट उपलभ्यस्वभावः सर्वदोपलभ्येत, अनुपलभ्यस्वभावत्वे आवरणापगमेऽपि तत्स्वभावानतिक्रमाद् मनागपि नोपलभ्येत इत्यर्थाऽप्रतिपत्तितः शाब्दव्यवहारविलोपः । अनेनैव न्यायेन वायूनामपि तद्व्यञ्जकत्वमयुक्तम् वायूनां च व्यञ्जकत्वपरिकल्पने वर्णवैफल्यप्रसक्तिः, स्फोटाभिव्यक्तावर्थप्रतिपादने वा तेषामनुपयोगात् । स्थिते ( ? सिद्धे) च स्फोटस्य वर्णोच्चारणात् प्राक् सद्भावे 10 वर्णानाम् वायूनां वा व्यञ्जकत्वं परिकल्प्येत । न च तत्सद्भावः कुतश्चित् प्रमाणादवगतः इति न तत्कल्पना ज्यायसी । यदपि 'प्रत्यभिज्ञानं स्फोटस्य नित्यत्वप्रसाधकं वर्णोच्चारणात् प्रागप्यस्तित्वमवहैं या अशब्दात्मक ? यदि अशब्दात्मक हैं तो अर्थबोध के हेतु नहीं बन सकेंगे। अब उन्हें शब्दात्मक माने जाय तो वहाँ भी यदि गो-शब्दात्मक माने जाय तो जितने देश उतने गो-शब्द प्रसक्त होंगे। यदि गोशब्दात्मक नहीं हैं तो गो- अर्थप्रतीतिजनक नहीं बन सकेंगे। यदि विविध देश, स्फोट से अभिन्न हैं तब तो एकदेश संस्कृत होने पर तदभिन्न स्फोट ही संस्कृत हो गया, अब तो पुनः वही दोष प्रसक्त होगा कि व्यापक होने से स्फोट की उपलब्धि सर्वदेशीय श्रोताओं को होगी । एवं यह भी दूषण होगा कि एक देश की आवरणमुक्ति होने पर तद्देशावच्छिन्न स्फोट की खण्डित प्रतीति होगी। यदि वर्णों के द्वारा किये जानेवाले संस्कार का यह मतलब हो कि स्फोटविषयकज्ञानोत्पाद, तो वह भी अयुक्त है क्योंकि वर्णों में आप अर्थबोधउत्पादन की शक्ति का 20 इनकार करते हैं तो स्फोटप्रतीति उत्पादन में सामर्थ्य कैसे स्वीकार लिया ? यहाँ न्याय अलग, वहाँ अलग, ऐसा नहीं हो सकता, न्याय तो सर्वत्र समान होता | स्फोट यदि उपलम्भस्वभाव है तो उस का सदा उपलम्भ चालु रहेगा, यदि अनुपलम्भ स्वभाव है तो उस का आवरण भंग होने पर भी, स्वभाव वही का वही ( अनुपलम्भ स्वभाव) होने से किंचित् भी उपलम्भ नहीं होगा । अतः स्फोटवाद में किसी भी तरह अर्थबोध सम्भव न होने से समस्त शाब्दिक व्यवहार लुप्त हो जायेगा । [ वायु के द्वारा स्फोट की अभिव्यक्ति का निरसन ] अब वे स्फोट की जैसे वर्णों में स्फोटव्यञ्जकता अघटित है वैसे वायु में भी वह अयुक्त है। उपरांत, वायु में व्यञ्जकता मान लेने पर वर्णों की निष्फलता (व्यर्थता) आ पडेगी, क्योंकि न तो अभिव्यक्ति के लिये उपयोगी हैं, न तो अर्थबोधन के लिये । तथा, वर्णोच्चार के पहले यदि स्फोट तत्त्व का अस्तित्त्व सिद्ध होगा, तभी वर्णों में या वायु में व्यञ्जकता की कल्पना उचित हैं; किन्तु 30 किसी भी प्रमाण से स्फोट का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं है अतः वह कल्पना भी प्रशस्त नहीं । 'स्फोट की नित्यता का साधक जो प्रत्यभिज्ञा प्रमाण है उसी से वर्णोच्चारपूर्व स्फोट का अस्तित्व भी सिद्ध हो जाता है ( ' यह वही सकार है' इत्यादि प्रत्यभिज्ञा की यहाँ बात ऐसा मानना कि 15 255 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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