SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ च प्रतिबन्धस्यैकस्मिन्नपि प्रमाणतोऽधिगमेऽन्वय-व्यतिरेकयोाप्त्या निश्चयः सम्पद्यते नान्यथा तदात्मनस्तादात्म्याभावे नैरात्म्यप्रसङ्गात्, कार्यस्य च स्वकारणाभिमते(त)भावाभावे भवतो निर्हेतुकत्वप्रसक्तेश्च। उक्तं च - (प्र.वा.३-३९/३४) स्वभावेऽप्यविनाभावो भावमात्रानुरोधिनि। तदभावे स्वयं भावस्याभावः स्यादभेदतः।। तथा - कार्यं धूमो हुतभुजः, कार्यधर्मानुवृत्तितः। स भवंस्तदभावेऽपि हेतुमत्तां विलंघयेत्।। यस्य च क्वचित् धर्मिणि प्रागुप्र(प)दर्शितप्रतिबन्धसाधकं प्रमाणं वृत्तम् इदानीं विस्मृतम् तस्य तदुपन्यासेन तत्र स्मृतिर()धीयते । अनुमेयार्थप्रसिद्धे(द्धि)स्तु अविनाभाविनिश्चये तत एव स्मर्यमाणात् (??) 10 प्रमाणात्, न पुनदृष्टान्तप्रतिबिम्ब(बन्ध)ग्राहकं च प्रामाण्यम् । यद्वा स्यान्नाद्यापि (??) क्वचिद्धर्मिणि प्रवृत्तं तस्यानुमानोपन्यासकाल एव प्रदर्शनीयमिति न तस्य प्रतिबिम्बग्राहिप्रमाणानुस्मृत्यर्थं पक्षीकृतार्थव्यतिरेकवान् साधनधर्म का भी अभाव रहेगा - इस प्रकार सकल पदार्थों का समुच्चय कर के ही सपक्ष में हेतु का सत्त्व और विपक्ष में उस का असत्त्व जाहीर करना पडेगा। (यह तो कैसे शक्य होगा ? अतः) किसी एक भी अधिकरण में साध्य का हेतु के साथ तादात्म्य या तदुत्पत्ति सम्बन्ध प्रमाणमूलक ज्ञात होगा तो चय-व्यतिरेक व्याप्ति के बल से साध्य का निश्चय प्राप्त हो सकेगा, अन्यथा नहीं। नहीं इसलिये कि साध्यात्मा का तादात्म्य सम्बन्ध नहीं होगा, तो हेतु के साथ आत्मभाव न होने से वह हेतु नहीं बनेगा। यदि कार्य (रूप हेतु) भी कारणविधया माने गये भाव के विरह में रह जायेगा तो वह हेतुरूप कार्य निर्हेतुक यानी विना कारण उत्पन्न हो गया ऐसा स्वीकारना पडेगा। प्रमाणवार्तिक के दो श्लोको में कहा गया है (३-३९/३४) 20 भावमात्र का अनुसरण करनेवाला स्वभाव (हेतु में) होगा तो (उस के साथ) अविनाभाव जरुर रहेगा। यदि (हेतु में साध्य की) स्वभावरूपता नहीं है तो उस भाव का (हेतु का) भी अभाव प्रसक्त होगा क्योंकि वह उससे अभिन्न है ।।३९ ।। तथा – धूम अग्नि का कार्य है क्योंकि उसमें कार्यधर्म (= कारण सत्त्वे सत्त्वम् तदभावे अभावः) का अनुसरण हैं। (अत एव) अग्नि के न रहने पर भी वह रह जायेगा तो हेतुमत्ता (= कार्यता) का उल्लंघन होगा ।।३४।।। [ हेतु में सामान्यलक्षणविरह के आपादन का निरसन ] ऋजुसूत्रबौद्ध विद्वान् का कहना है कि हेतु में सामान्यलक्षण के विरह का आपादन अयुक्त ही है यह उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट हो जाता है, फिर भी एक और बात है - किसी प्रमाता को किसी एक धर्मी में पूर्वप्रदर्शित व्याप्तिसाधक (तादात्म्यादि सूचक) प्रमाण प्रवृत्त हुआ। लेकिन अभी वह उस को विस्मृत हो गया। इस स्थिति में हम जो प्रतिबन्ध का धर्मी में उपन्यास करेंगे उससे उस प्रमाता को पुनः उस 30 प्रमाण का स्मरण जाग्रत होगा। (स्मरण होने में तो कोई बाध नहीं है।) एक बार पूर्वजात प्रमाण का स्मरण हो आया तो उस प्रमाता को स्मृत प्रमाण से ही अविनाभावित्व का निश्चय हो कर साध्यार्थ की सिद्धि हो जायेगी। प्रमाण को दृष्टान्त के प्रतिबिम्ब का (यानी दृष्टान्तगत साध्यादि का ग्राहक हम नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy