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________________ खण्ड-३, गाथा - २७ २९७ न निष्पन्नस्य भावस्य भावो नामान्य: कश्चित् तेन तस्य सम्बन्धाऽसिद्धेर्न भावस्य सत्ता भवेदिति 'स्वयमेव हेतुनिरपेक्षो भावो भवति' इत्येतदपि वक्तव्यम् । यदि पुनस्तत्र न किञ्चिद् भवति - इति क्रियाप्रतिषेधमात्रमिति न हेतुव्यापारः, कथं तर्हि तदवस्थस्य भावस्य दर्शनादिक्रिया न भवेदिति वक्तव्यम् ? ' स एव न भवति' इति चेत्, तर्हि तस्यैवाभवनं करोति विनाशहेतुरित्यभ्युपगन्तव्यमिति तद्धेतूनामकिञ्चित्करतयाऽनपेक्षणीयत्वमनुपपन्नम् । अत एवापेक्षणीयत्वोप - 5 पत्तिर्भावस्यान्यथाकरणात् कथंचिदन्यथा सहानवस्थानलक्षणविरोधाऽसिद्धेः प्रतिनियतव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः । अपि च, यदि नाम स एव न भवति, तथापि प्रध्वंसाभावः प्रागभावाभावात्मकः उत्तरकार्यवदभ्युपगन्तव्यः तस्यापि तदनन्तरमुपलम्भात् । एतावान् विशेषः- विनाशप्रतिपादनाभिप्राये सति तत्प्राधान्येतरोपसर्जनविवक्षायाम् 'विनष्टो भावः' इति प्रयुज्यते प्रतिपत्तिरपि तथैव, विनाशोपसर्जनेतरप्राधान्यविवक्षायाम् भी ( उस का भाव के साथ कोई नाता-रिश्ता न होने से ) दूसरे क्षण में भाव के दृष्टिगोचर होने 10 की आपत्ति होगी । अतः हम अभाव होता है ऐसा नहीं कहते, हम कहते हैं कि दूसरे क्षण में 'भाव स्वयं ही नहीं रहता है ।' अब इस के सामने उत्तरपक्षी कहता है - उत्तरपक्ष :- आगे चल कर भाव के लिये भी ऐसा कह दो कि उत्पन्न भाव का कोई (कारण) भाव नहीं होता, होगा तो उस के साथ भाव का कोई सम्बन्ध नहीं घटता, अतः भाव ( कारणात्मक भाव ) की कोई सत्ता न होने से 'भाव स्वयं हि हेतुनिरपेक्ष उत्पन्न होता है ।' [ विनाशहेतु से भाव को अभवन-करण का आपादन ] पूर्वपक्ष :- हम भाव का अभाव होने की बात नहीं करते, हम तो सिर्फ 'वहाँ कुछ नहीं होता' इतना क्रिया का निषेधमात्र ही करते हैं । अतः वहाँ हेतुव्यापार का निषेध करते हैं । उत्तरपक्ष :- जब आप सिर्फ भवन क्रियामात्र का निषेध करते हैं तो करो, लेकिन उस क्षण में तदवस्थ भाव की दर्शनादि क्रिया क्यों नहीं होती ? यह बताईये। आपने भाव का या उस की 20 दर्शन क्रिया का निषेध तो नहीं किया है। पूर्वपक्ष :- अरे भाई वह स्वयं नहीं है तो दर्शनादि कैसे होगा ? उत्तरपक्ष :- अत एव यह मानना होगा कि विनाशहेतु ही भाव की अभवनक्रिया को करता है । सारांश, 'विनाशहेतु अकिंचित्कर होने से नाश के लिये अपेक्षणीय नहीं' यह प्रतिज्ञा युक्तियुक्त सिद्ध नहीं होती । विनाशहेतु भाव का कथंचिद् अन्यथा ( = विभिन्नता) करण करता है इसीलिये तो 25 विनाशहेतु की अपेक्षणीयता सिद्ध होती है । यदि विनाशहेतुक अन्यथाकरण नहीं मान कर सिर्फ अभवन क्रिया मानेंगे तो अभवनक्रिया से भाव के भवन की कोई हानि न होने से, भवन- अभवन में जो सहानवस्थान ( = एक साथ एक काल में न रहेना) स्वरूप विरोध है वह नाममात्र हो जायेगा । फलतः 'प्रकाशस्थल में तिमिर नहीं होता' इत्यादि नियत व्यवहार का उच्छेद प्रसक्त होगा । Jain Educationa International 15 एक बार 'वही नहीं रहता' ऐसी व्याख्या को मान लिया, फिर भी अभवनक्रियाकाल में, 30 प्रागभावाभावात्मक प्रध्वंसाभाव की हस्ती भी माननी पडेगी जैसे दुग्ध की अभवनक्रिया के बाद दधिरूप उत्तर कार्य की मानते हैं, क्योंकि प्रध्वंसाभाव भी कपालकाल में दृष्टिगोचर होता ही है। फर्क है तो For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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