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________________ खण्ड - ३, गाथा - २७ [ सांख्यविशेषमान्यानर्थान्तरभूतपरिणामवादस्य निरसनम् ] अनर्थान्तरभूतपरिणामवादोऽपि प्रतिक्षिप्त एव । न हि अर्थान्तरपरिणामाभावे परिणाम्येव कारणलक्षणोऽर्थः, पूर्वापरयोरेकत्वविरोधात् । न च परिणामाभावे परिणामिनोऽपि भावो युक्तः परिणामनिबन्धनत्वात् परिणामित्वस्य । अभिन्नस्य हि पूर्वापरावस्थाहानोपादानात्मतया एकस्य वृत्तिलक्षणः परिणामो न युक्तियुक्तः । तन्नैकान्तभेदे कारणमेवानर्थान्तरकार्यरूपतया परिणमत इति स्थितम् । 5 मृत्पिण्डावस्थायां घटार्थक्रिया- गुणव्यपदेशाभावात् 'असदुत्पद्यते कार्यम्' इत्ययमप्येकान्तो मिथ्यावाद एव । कार्योत्पत्तिकाले कारणस्याऽविचलितरूपस्य कार्यादव्यतिरिक्तस्य सत्त्वे पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात् । तद्व्यतिरिक्तस्य तस्य सद्भावे कारणस्य प्राक्तनस्वरूपेणैवावस्थितत्वात् अकारणा कार्योत्पत्तिर्भवेत् कारणस्य प्राक्तनाऽकरणस्वरूपाऽपरित्यागात् परित्यागे वा कार्यकारणस्वरूपस्वीकारेण तस्यैवाऽवस्थितत्वादनेकान्त [ सांख्यविशेष के अनर्थान्तरभूतपरिणामरूपकार्य का निरसन ] 'कार्य कारण का ही एक ऐसा परिणाम है जो कारण से अर्थान्तरभूत नहीं है' ऐसा जो सांख्यएकदेशी का मत है वह भी उपरोक्त सत् कार्यवाद के निरसन से निरस्त हो जाता है । जैसे कारण और कार्य के बारे में ऊपर विचारणा की गयी है वैसे कारण और परिणाम के बारे में विमर्श करने से स्पष्ट पता चलता है कि जब तक परिणाम को अर्थान्तर नहीं मानेंगे तब तक परिणामीरूप कारणात्मक अर्थ भी संगत नहीं होगा, क्योंकि कारण और परिणाम में पूर्वापरभाव होने से उन में एकान्त एकत्व 15 मानने में विरोध है । तथा, पूर्वोक्त युक्तियों के विरोध से परिणाम भी युक्तिसंगत न होने से परिणामी का भी अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, क्योंकि परिणामित्व परिणामसिद्धि आधीन है। एक एवं अभिन्न पदार्थ की पूर्वावस्थात्याग-उत्तरावस्थास्वीकारात्मक वृत्ति वर्त्तना जिस को परिणाम कहा जाता है। युक्तिसह नहीं है । निष्कर्ष: कारण-कार्य के एकान्त अभेद पक्ष में 'कारण ही स्व से अनर्थान्तरभूत ( = अभिन्न) कार्यरूप से परिणत होता है' ऐसा सिद्ध नहीं हो सकता । [ नैयायिकादिमान्य असत्कार्यवाद का निरसन ] कोई भी एकान्तमत मिथ्या है। 'मिट्टीपिण्डावस्था में घटसाध्य अर्थक्रिया नहीं होती, घट के गुण एवं 'घट' ऐसा नामकरण भी नहीं होता अतः उत्पत्ति के पूर्व कार्य असत् होता है' यह एकान्तवाद भी मिथ्या ही है। स्पष्टता :- कार्योत्पत्तिकाल में कार्याभिन्न कारण यदि अविचलस्वरूप ही होगा तो कार्य ही उत्पन्न नहीं होता... इत्यादि पूर्वकथित दोष प्रसक्त होंगे। यदि कहें कि 'कारण कार्य से 25 अव्यतिरिक्त नहीं, व्यतिरिक्त होता है' तो वहाँ कारण तो पूर्ववत् अपने अजननस्वभाव से अवस्थित यानी निर्व्यापार रहेगा, फिर बिना कारण ही कार्योत्पत्ति प्रसक्त होगी, क्योंकि कारण ने वहाँ अपने पूर्वकालीन निर्व्यापारता स्वरूप का त्याग तो नहीं किया। यदि पूर्वकालीन स्वरूप का त्याग कर के वह कार्यनिष्पादन व्यापार करेगा, ऐसा स्वीकार करेंगे तो मानना होगा कि उस व्यापार के उद्देश्यरूप से कार्य उस काल में विद्यमान है, अतः 'कथञ्चित् सत्' अनेकान्त सिद्ध हो जायेगा । तथा कारण- 30 कार्य का सर्वथा भेद मानने पर घटोत्पत्ति के बाद मिट्टीपिण्ड एवं घट की पृथग् उपलब्धि प्रसक्त होगी । 'कार्य घट कारण मिट्टीपिण्ड का आश्रित बन कर ही उत्पन्न होने से, दोनों की पृथग् ऐसा कहना - Jain Educationa International = - For Personal and Private Use Only — २८७ - 10 20 www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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