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________________ 5 खण्ड-३, गाथा-२१ २७७ स्वपक्षप्रतिबद्धाः = स्व आत्मीय पक्ष: अभ्युपगमस्तेन प्रतिबद्धाः = प्रतिहता यतस्तत इति। नयज्ञानानां च मिथ्यात्वे तद्विषयस्य तदभिधानस्य च मिथ्यात्वमेव । तेनैवं प्रयोग: - मिथ्याः सर्वनयवादा: स्वपक्षेणैव प्रतिहतत्वात् चौरवाक्यवत्। अथ तेषां प्रत्येकं मिथ्यात्वे बन्धाद्यनुपपत्तौ सम्यक्त्वानुपपत्तिः सर्वत्रेत्याहअन्योन्यनिश्रिताः = परस्पराऽपरित्यागेन व्यवस्थिताः पुनर् इति त एव सम्यक्त्वस्य यथावस्थितवस्तुप्रत्ययस्य सद्भावा भवन्तीति न बन्धाद्यनुपपत्तिः। ननु यदि नया प्रत्येकं सन्ति कथं प्रत्येकावस्थायां तेषां सम्यक्त्वाभावः स्वरूपव्यतिरेकेण अपरसम्यक्त्वाभावात् तस्य च तेष्वभ्युपगमात् ? अथ न सन्ति, कथं तेषां समुदायः सम्यक्त्वनिबन्धनो भवेत् असतां समुदायानुपपत्तेः ? न च असतोऽपि सम्यक्त्वम् नयवादेष्वपि सम्यक्त्वप्रसक्तेः । न च प्रत्येकं तेषां सतामसम्यक्त्वेऽपि तत्समुदाये सम्यक्त्वं भविष्यति ‘दव्वढिओ त्ति तम्हा नत्थि णओ' [९] इत्याधुपसंहारसूत्रविरोधात् । न च प्रत्येकमेकैकांशग्राहिणः सम्पूर्णवस्तुग्राहकाः। समुदिता इति सम्यग्व्य- 10 हैं क्योंकि अपने अपने पक्ष के साथ आग्रहबद्ध होने से परस्पर प्रतिघातकारक बन जाते हैं। एकान्तग्रह के कारण जब सभी नयों में मिथ्यात्व भरा है तो उन का विषय घटादि और उन का प्रतिपादन ये सब मिथ्यात्वग्रस्त सिद्ध होते हैं। यहाँ अब इस प्रकार अनमानप्रयोग जान लो - 'सकल नयवाद मिथ्या हैं क्योंकि अपने ही पक्ष से एक-दूसरे के साथ टकरानेवाले हैं जैसे तस्कर का वाक्य ।' शंका :- जब नयों में प्रत्येक में मिथ्यात्व हैं, बन्धादि न घट सकने से सभी में सम्यक्त्व तो 15 दूर रह गया। उत्तर :- अन्योन्यनिश्रागर्भित यानी एक-दूसरे को न छोडते हुए सहयोगी बन जाय तो वे ही यथावस्थितवस्तुबोधरूप सम्यक्त्व के प्रशस्तभाववाले बन जायेंगे, फिर कोई बन्धादि की असंगति नहीं होगी। [प्रत्येक में नहीं है तो समुदाय में कैसे ? शंका ] शंका :- नय यदि प्रत्येक (= स्वतन्त्र ) हैं तो उन की प्रत्येकावस्था में सम्यक्त्व क्यों न हो? 20 क्या अपने (प्रत्येकत्व) स्वभाव से अतिरिक्त कोई नया सम्यक्त्व होता है ? नहीं। स्वभाव तो उन में है ही। यदि 'प्रत्येक' कोई नय ही नहीं है तब तो उन का समुदाय सम्यक्त्वप्रयोजक कैसे बनेगा ? जो नहीं है वह असत् है, असत् वन्ध्यापुत्रादि का कोई समुदाय नहीं हो सकता। जो स्वयं असत् हैं उस में सम्यक्त्व नहीं होता, यदि मानेंगे तो नयवादों में भी सम्यक्त्व प्रसक्त होगा। ऐसा नहीं कहना कि - ‘नय सत् हैं असत् नहीं, किन्तु एक एक में सम्यक्त्व नहीं होता किन्तु उन के समुदाय 25 में सम्यक्त्व हो सकता है।' – क्योंकि पहले जो एक उपसंहारसूचक सूत्र कहा था ‘दव्वट्ठिओ त्ति तम्हा नत्थि णओ' (= शुद्ध द्रव्यास्तिक कोई नय नहीं है) इस सूत्र [९] के साथ विरोध होगा। यदि कहें कि – 'प्रत्येक नय एकांशवस्तुग्राही है किन्तु उन का समुदाय होने पर वे मिल कर सम्पूर्णवस्तुग्राहक बनते हैं अतः 'सम्यक्' उपाधि प्राप्त कर लेते हैं।' – तो यह ठीक नहीं, क्यों कि समुदाय में रहने पर भी वे अपने अपने विषय को ही पकड कर रखेंगे, अपनी विषयमर्यादा छोड कर दूसरे विषय 30 में टाँग नहीं अडाएँगे। तथा, जो प्रत्येक में नहीं होता वह उन के समुदाय में भी नहीं हो सकता, उदा० प्रत्येक बालु-कण में तैल नहीं होता, तो उन के समुदाय को पीलने से भी तैलप्राप्ति नहीं होती। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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