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________________ २७० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ व्यापृतास्तेऽपि तद्विषयव्यतिरिक्तविषयान्तराभावात् सर्वनयवादानां च सामान्य-विशेषोभयकान्तविषयत्वात् । तन्न नयान्तरसद्भावः यतः तदारब्धोभयवादे नयान्तरं भवेत् ।।१५।।। ननु सङ्ग्रहादिनयसद्भावात् कथं तद्व्यतिरिक्तनयान्तराभावः ? सत्यम्, सन्ति सङ्ग्राहदयः किन्तु तद्विषयव्यतिरिक्तविषयान्तराभावतः तद्वितयविषयास्तेऽपि तद्दषणेनैव दूषिताः। यतो न मूलच्छेदे तच्छा5 खास्तदवस्थाः सम्भवन्तीत्याह(मूलम्-) सव्वणयसमूहम्मि वि णत्थि णओ उभयवायपण्णवओ। मूलणयाण उ आणं पत्तेय विसेसियं बिति।।१६।। सङ्ग्रहादिसकलनयसमूहेऽपि नास्ति कश्चिद् नयः उभयवादप्ररूपकः यतः मूलनयाभ्यामेव यत् प्रतिज्ञातं वस्तु तदेव आश्रित्य प्रत्येकरूपाः सङ्ग्रहादयः पूर्वपूर्वनयाधिगतांशविशिष्टमंशान्तरमधिगच्छन्नति 10 न विषयान्तरगोचराः। अतो व्यवस्थितम् परस्परात्यागप्रवृत्तसामान्यविशेषविषयसङ्ग्रहाद्यात्मकनयद्वयाधिगम्यात्मकत्वात् वस्त्वप्युभयात्मकम् ।।१६।। न केवलं बाह्यघटादि वस्तु उभयात्मकं तथाविधप्रमाणग्राह्यत्वात् किन्त्वान्तरमपि हर्ष-शोक-भय उत्तर :- यह कथन बोलने योग्य नहीं है। कारण, आखिर अन्य नय भी मूल उभयनयगृहीत विषय प्रति ही सक्रिय हैं, अन्य कोई अधिक विषय नहीं है, सभी नयवादों का विषय या तो एकान्त 15 सामान्य है या एकान्त विशेष है। अतः ऐसा कोई नयविशेष है नहीं जिस से कि तन्मूलक उभयवाद चलाने के लिये वह प्रवृत्ति करे ।।१५।। [ उभयवादप्ररूपक कोई भी स्वतन्त्र नय नहीं है ] ___ अव० :- शंका :- संग्रहादि नय अनेक हैं तो उक्त दो मूलनय से अधिक नयभेद का अभाव हैं, किन्तु मूलनयविषयभूत वस्तु (सा.वि.) से पृथक् कोई नया विषय नहीं है, उक्त मूलनययुग्म का 20 विषय ही उन का विषय है। अतः निरपेक्ष मूल नययुगल सदोष सिद्ध होने पर तन्मूलक संग्रहादि निरपेक्ष नयवृंद भी दूषित सिद्ध होता है। कारण:- वृक्षमूल का उच्छेद हो जाने पर वृक्ष की शाखाप्रशाखा जीवंत नहीं रह सकती। यही १६ वीं गाथा में - ___ गाथार्थ :- सकलनयवृंद में भी (ऐसा) कोई नय नहीं (जो) उभय वाद का पुरस्कर्ता हो । (कारण :-) प्रत्येक (नय) मूल नयों की आज्ञा (= विषय वस्तु) का सविशेष कथन करते हैं ।।१६।। 25 व्याख्यार्थ :- संग्रहादि सकलनयसमुदाय में भी कोई ऐसा नय नहीं जो उभयवाद का प्रज्ञापक हो। कारण :- मूल नयों ने जिन वस्तु की आज्ञा यानी प्रतिज्ञा की है उन्हीं का आशरा ले कर, पूर्व पूर्व नय स्वीकृत वस्तु-अंश से गर्भित अंशांतर का उत्तरनय निरूपण करते हैं, नहीं कि अन्यविषयसंबन्धि कुछ कहते हो। अतः निश्चित होता है कि वस्तु उभयात्मक (सा.वि.रूप) है क्योंकि परस्परमिलितरूपवाले सामान्य-विशेष विषयग्राहि संग्रहादिमय नययुगलरूप बोध के गोचरस्वरूप है।।१६।। [ बाह्यवत् अभ्यन्तर पदार्थ भी उभयात्मक ] अव० :- केवल बाह्य घटादि वस्तु ही (सा.वि.) उभयात्मक है उभयात्मकतासूचकप्रमाणग्राह्य होने ॐ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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