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________________ २६४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ यतः शक्यमत्राप्येवं वक्तुम् ग्राह्यग्राहकानुभवयोः स्वकारणवशाद् भिन्नस्वभावयोरेव प्रतिक्षणं विशिष्टयोरुत्पत्तिस्तेन रूपेणेति। एवं च [प्र० वा० २-३५४] अविभागोऽपि बुद्ध्यात्मा विपर्यासितदर्शनैः। ग्राह्य-ग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ।। इत्ययुक्तमेवाभिधानं स्यात्। परेणापि चैवं वक्तु शक्यत एव - _ 'परमात्माऽविभागोऽप्यविद्याविप्लुतमानसैः। सुख-दुःखादिभिर्भागैर्भेदवानिव लक्ष्येत।।' इति । न हि भेदाऽभेदैकान्तयोरागमोपलम्भं परमार्थाऽदर्शनं च प्रति कश्चिद् विशेषः संलक्ष्यते । कथंचित् परमार्थाऽदर्शनाभ्युपगमे च ‘उत्पन्नं कथंचित् पुनरुत्पादयेत्' इत्यनेकान्तसिद्धिः स्यादित्युक्तम् । स्वलक्षणस्य परमात्मनो वा परमार्थसतः सर्वथाऽनुपलम्भकान्ताभ्युपगमे परीक्षाक्षमस्य संवृतिरूपस्याऽविद्यास्वभावस्य वा दर्शनाऽसम्भवाद् अनेकान्तात्मकस्य सतः सर्वथैकान्तव्युदासेन प्रमाणतो दर्शनमायातमिति कथं तत्प्रतिक्षेपः ? [कथंचिद् अभेद के बिना ग्राह्य-ग्राहकाकार अनुपपत्ति ] कुछ पदार्थभेद (= वस्तुप्रकार) ऐसे हैं कि जिन में भेद के रहते हुए भी यदि कथंचित् अभेद नहीं रहेगा तो उन में 'यह इस का कारण, यह इस का कार्य' ऐसा कोई भी नियम सिद्ध ही नहीं हो सकेगा। यदि तादात्म्य के बिना भी उक्त नियम की सिद्धि शक्य है तो ग्राह्य-ग्राहकाकार (जिन में अभेद होने पर भी) तादात्म्य के लोप की आपत्ति आ सकती है क्योंकि वहाँ भी ऐसा तर्क हो 15 सकता है कि अपने अपने कारण बल से ही भिन्नस्वभाववाले ये दोनों एक-दूसरे से विशिष्ट यानी मिलितरूप से ही उत्पन्न होते हैं, फिर तादात्म्य मानने की जरूर क्या ? यदि ऐसा मान लेंगे तो यह कथन अयक्त ही ठहरेगा कि - [ग्राह्य-ग्राहकसंवित्तिअविभाग की तरह परमात्मा अविभाग ] _‘परमार्थ से बुद्धिस्वरूप में भेद नहीं होने पर भी विपरीत दर्शनवालों को ग्राह्य-ग्राहक संवेदन 20 भेदवाला दिखता है।।' (२-३५४) ऐसा कथन अयुक्त ठहरेगा, क्योंकि ब्रह्म अभेदवादी भी ऐसा कहेगा - ‘परमात्मा में भेद नहीं होने पर भी अविद्या से विकृत चित्तवालों को सुख-दुःखादि खंडों से भेदयुक्त दिखाई देता है।।' यहाँ अपने शास्त्रों की वासना से चाहे कोई एकान्त भेद या अभेद स्वीकार ले - दूसरी ओर उन को परमार्थ का दर्शन न होने का माना जाय तो एकान्तवाद में कुछ फर्क पडता नहीं है (मतलब 25 दोनों जूठे हैं।) यदि दोनों (भेद और अभेद वादियों) में कथंचित् (अंशतः) परमार्थ दर्शन का अंगीकार किया जाय तब तो 'जो (कुछ अंश से) उत्पन्न है वही (अन्य अंशो से) कथंचिद् उत्पन्न किया जायेगा' ऐसा मानने में भी अनेकान्त मत ही सिद्ध होगा। पहले भी यह कहा जा चुका है। चाहे स्वलक्षण हो या चाहे परमात्मा, यदि दोनों पारमार्थिक हैं कुछ अंश से उन की (अपरोक्ष) उपलब्धि भी माननी होगी, यदि उन को सर्वथा एकान्त परोक्ष मानेंगे तो प्रमाणपरीक्षा में उत्तीर्ण न हो सकने से, चाहे 30 सांवृतिरूप (= काल्पनिक) मानो या फिर वासनाप्रेरित मानो, दर्शन का सम्भव बचेगा नहीं। हाँ A. परमार्थतोऽविभागो भेदरहितोऽपि बुद्ध्यात्मद्वयवासनया विपर्यासितं = विभागेनोपदर्शितं दर्शनं येषां तैरतत्त्वदर्शिपुरुषैाह्यग्राहकसंवित्तीनां परस्परं भेदः तद्वानिव लक्ष्यते ।। इति म० नन्दिकृतटीकायाम् ।) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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