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________________ २५३ खण्ड-३, गाथा-१२ कारणयोः परस्परतो व्यावृत्तिः कथञ्चिदनुस्यूतमेकमाकारं बिभ्रतोर्विज्ञानग्राह्यग्राहकाकारयोरिवापरित्यक्ततादात्म्यस्वरूपयोः, आहोस्वित् घट-पटयोरिवात्यन्तभिन्नस्वरूपयोः इत्यत्र न निश्चयः। किञ्च, प्रत्यक्षेणैव हेतु-फलयोः कथञ्चित्तादात्म्यस्य निश्चयाद् न घट-पटयोरिवात्यन्तव्यावृत्तिस्तयोः परस्परतोऽभ्युपगन्तव्याः। न ह्यध्यक्षतः प्रसिद्धस्वरूपं वस्तु तद्भावे प्रमाणान्तरमपेक्षते, अग्निरिवोष्णत्वनिश्चये। न च कालभेदान्यथानुपपत्त्या प्रतिक्षणं भेदेऽपि पूर्वोत्तरक्षणयोः कथंचित्तादात्म्यं वस्तुनो विरुध्यते 5 येनाध्यक्षविरुद्धो निरन्वयविनाशः कल्पनामनुभवति, अध्यक्षविरोधेन प्रमाणान्तरस्याऽप्रवृत्तेः। न चानुवृत्तिव्यावृत्त्योः परस्परं विरोधैकान्ताभ्युपगमे विज्ञानमात्रमपि सिध्येदिति कुतः क्षणस्थितिर्भावानां निरन्वया व्यावृत्तिर्वा सिद्धिमासादयेत् ? अन्तर्बहिश्च भावानामनुगत-व्यावृत्तात्मकत्वात् प्रमाणतस्तथैवानुभवात् तत्स्वरूपाभावे निःस्वभावतया भावाऽभावप्रसक्तेः । यदि च परस्परव्यावृत्तस्वभावानां परमाणूनां कथंचिदनुवृत्तकरनेवाले, तादात्म्य का सर्वथा त्याग न करनेवाले, कार्य-कारण दोनों के बीच होगा, जैसे कि कथंचिदेकाकार 10 ग्राह्य-ग्राहक उभयरूप विज्ञान में होता है ? या फिर घट-वस्त्र की तरह सर्वथा भिन्न स्वरूप कार्यकारण के बीच होगा ? – इस तरह कोई निश्चय नहीं है अत एव अन्य देश-काल में अवृत्ति स्वीकारपात्र नहीं रहती। [ कारण-कार्य में अंशतः भेदाभेद का समर्थन ] यह भी अनुभवसिद्ध है - उपादान कारण और कार्य (मिट्टी एवं घट) में प्रत्यक्ष से ही अंशतः 15 तादात्म्य निश्चित होता है। अतः घट-वस्त्र की तरह उन में परस्पर अत्यन्त भेद स्वीकारार्ह नहीं है। जिस वस्तु का स्वरूप प्रत्यक्षप्रसिद्ध है उस के निर्णय के लिये अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं रहती, उदा० अग्नि के स्पार्शन प्रत्यक्ष से उष्णता का निश्चय हो जाने के बाद अन्य प्रमाण की खोज करनी पडती नहीं। हाँ, कालभेद (यानी वस्तु में अतीतादि अवस्थाभेद), वस्तु में प्रतिक्षण परिवर्तन के स्वीकार के बिना घट नहीं सकता, तथापि पूर्वोत्तर क्षण में वस्तु का तादात्म्य या एकत्व विरोधाक्रान्त नहीं 20 है जिस से कि प्रत्यक्षविरुद्ध निरन्वयनाश की कल्पना का शरण लेना पडे, जहाँ प्रत्यक्ष का विरोध है वहाँ अन्य प्रमाण आगे आने का साहस नहीं करता। फलतः सिद्ध होता है कि प्रत्येक वस्तु में कथंचित् अनुवृत्ति (= एकत्व) एवं व्यावृत्ति (= भेद) अपने आप रहते हैं। यदि उन में एकान्ततः विरोधापादन करेंगे तो विज्ञान की सिद्धि में भी (ग्राह्याकार-ग्राहकाकार विरोध प्रसक्त होने से) बाधाप्रवेश के कारण उस की भी सिद्धि नहीं हो सकेगी, तो फिर भावों का क्षणभंग एवं निरन्वयनिवृत्ति (विज्ञान 25 के बिना) कैसे सिद्धि-आरोहण कर पायेंगे ? भाव मात्र का बाह्य या भीतरी स्वरूप अनुवृत्ति-व्यावृत्ति उभयात्मक होता है, प्रमाण से उसी प्रकार का अनुभव भी होता है, यदि फिर भी उभयात्मकता नहीं मानना है तो भावों के स्वरूप के बारे में कोई निश्चय न होने पर, स्वभावहीनता प्रसक्त होने से वस्तुमात्र का उच्छेद प्रसक्त होगा। [ अंशतः स्थूलता के अस्वीकार में बहुत नुकसान ] परस्पर भिन्न व्यक्तित्ववाले पुञ्जभूत परमाणुओं में यदि कथंचित् अनुस्यूत एक स्थूलाकार को वास्तविक नहीं मानेंगे तो बाह्य किसी भी पदार्थ का प्रत्यक्ष अवभास होगा नहीं, क्योंकि जब प्रत्येक 30 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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