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________________ २४४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ [ द्रव्य-पर्याय संकीर्णताबोधार्थं ज्ञानानेकान्तनिरूपणम् ] एवं तावत् द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थकिभेदेन भेदमनुभवतां नयानां स्वरूपं प्रतिपाद्य अनेकान्तभावभावनयैवैषां सत्यता नान्यथेत्येतत्प्रतिपादनार्थं ज्ञानानेकान्तमेव तावदाह(मूलम्) पज्जवणयवोक्कन्तं वत्थु दव्वट्ठियस्स वयणिज्ज। जाव दविओवओगो अपच्छिमवियप्पनिव्वयणो ।।८।। [व्याख्या ] द्रव्यास्तिकस्य वक्तव्यं = परिच्छेद्यो विषयः, निश्चयकर्तृ वचनं निर्वचनम्, विकल्पश्च निर्वचनं च विकल्प-निर्वचनम्। न विद्यते पश्चिमं यस्मिन् विकल्पनिर्वचने तत् - तथा, तथाविधं तद् यस्य द्रव्योपयोगस्यासी अपश्चिमविकल्पनिर्वचनः सङ्ग्रहावसानः इति यावत्, ततः परं विकल्पवचनाऽप्रवृत्तेः । यावद् अपश्चिमविकल्पनिर्वचनो द्रव्योपयोगः प्रवर्तते तावद् द्रव्यार्थिकस्य विषयो वस्तु, तच्च पर्यायाक्रान्तमेव; 10 अन्यता ज्ञानाऽर्थयोरप्रतिपत्तेरसत्त्वप्रसक्तिः। न हि पर्यायाऽनाक्रान्तसत्तामात्रसद्भावग्राहकं प्रत्यक्षमनुमानं वा प्रमाणमस्ति, द्रव्यादिपर्यायाक्रान्तस्यैव सर्वदा सत्तारूपस्य ताभ्यामवगतः। यद्वा यद् वस्तु सूक्ष्मतर-तमादिबुद्धिना पर्यायनयेन स्थूल रूपत्यागेनोत्तरतत्तत्सूक्ष्मरूपाश्रयणाद् व्युत्क्रान्तम् [ द्रव्य-पर्यायों की अवियुक्तताप्रदर्शता ज्ञान अनेकान्तवाद ] अवतरणिका :- इस प्रकार, द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक के भेद से स्वयं भी भेद धारण करने वाले नयों 15 का स्वरूप दिखाया। अब ८ वी गाथा से यह दिखाना है कि उन नयों की सत्यता भी अनेकान्त स्वभाव की भावना के द्वारा ही हो सकती है, इस लिये अब ज्ञान में अनेकान्तगर्भता प्रदर्शित करते हैं - गाथार्थ :- पर्यायनय से आक्रान्त वस्तु द्रव्यार्थिक का ग्राह्य (विषय) है, जहाँ तक अपश्चिम (= चरम) विकल्प-निर्वचन है (वहाँ तक) द्रव्योपयोग होता है। ___ व्याख्यार्थ :- द्रव्यास्तिक का वाच्य (= ग्राह्य) विषय समझने के लिये व्याख्याकार पहले उत्तरार्ध का 20 स्पष्टीकरण करते हैं :- निर्वचन यानी निश्चयकारक वचन । विकल्प और निर्वचन का समाहार द्वन्द्व एकवचन से सूचित किया है। जिस विकल्पनिर्वचन के पश्चिम (उत्तर) में कोई शेष नहीं ऐसे विकल्पनिर्वचन को अपश्चिम कहा गया है। (इस का तात्पर्य यह है कि 'शुक्ल' यह चरम विकल्पवचन है - उस के पहले द्रव्य-मिट्टी-घट ये सब अचरम विकल्पवचन पर्यन्त द्रव्योपयोग है वह द्रव्यास्तिक का विषय समझना ।) जो द्रव्योपयोग ऐसे अपश्चिम विकल्प निर्वचनरूप यानी संग्रहणशील (= संक्षेपीकरणरूप या 25 सामान्यीकरणरूप) होता है - जिस के बाद विकल्पवचन (सामान्यीकरण) निरुद्ध हो जाता है ऐसा द्रव्योपयोग द्रव्यार्थिक का वाच्य विषय - वस्तु है और वह अनेकान्तदृष्टि से देखा जाय तो पर्यायाक्रान्त ही होता है। उस के बिना ज्ञान या अर्थ का भान असंभव होने से उन का सत्त्व लुप्त हो जायेगा। ऐसा कोई प्रत्यक्ष या अनुमान प्रमाण है नहीं जो पर्यायानासक्त सत्ता (सामान्य) मात्र की हस्ती का बोधक हो। प्रमाणद्वय (प्र० अनु०) से तो सर्वदा द्रव्यादिपर्यायानुषक्त सत्तारूप का ही बोधन किया जाता है। [ जहाँ तक द्रव्योपयोग वहाँ तक द्रव्यार्थिक विषय ] अथवा, सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम आदि दृष्टिवाले पर्यायनय ने स्थूलरूपता को छोड कर उत्तरोत्तर तत्तत् 3 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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