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________________ खण्ड-३, गाथा-६ २३५ न चाऽसंनिहितानां भाविकालादीनां तत्राऽप्रतिभास: विशेष्यप्रतिभासाऽऽकृष्टानां शतादिग्रहणे पूर्वसंख्येयानामिव तेषां तत्र प्रतिभाससंवेदनात् अन्यथा अस्खलद्रूप एकत्वनिबन्धन उपादेयव्यवहारस्तत्र कथं भवेत् ? इत्युक्तमसंनिहितार्थस्यापि चेन्द्रियजत्वं तैमिरिकज्ञानस्येवोपपन्नम् केवलमसत्यत्वे विवादः, तत्र च बाधकाभावात् कालान्तरस्थायिताप्रतिपत्तेः सत्यता व्यवस्थाप्यते । न च विषयसंनिधानाऽसंनिधाने इन्द्रियजत्वप्रयोजके अपि त्विन्द्रियव्यापारानुविधानम् तच्चानास्तीति कथं न कालान्तरस्थितिप्रतिपत्तिरक्षजा ? न चावच्छेदकाग्रहणे- 5 ऽवच्छेद्यस्याप्यग्रहणमिति वक्तव्यम् अवच्छेदकप्रतिभासस्य प्रसाधितत्वात्। ___किञ्च, यदि पूर्वापरविविक्तमध्यक्षणप्रतिभास्येवाध्यक्ष भवेत् तदा बाधकसंवादप्रत्ययानुत्पत्तितः प्रमाणेतरव्यवहारो ज्ञानानां विशीर्येत । तथाहि - बाधकं पूर्वविषयापहारेणोत्पत्तिमासादयति, पूर्वप्रत्ययेन च यद्युत्तरप्रत्ययसमये स्वविषयसत्त्वं नावभातं तदा स्वसमये बाधकेन पूर्वविज्ञानगोचरस्याऽसत्त्वावेदनेऽपि कथं भाव के विशेषणरूप से (असंनिहित) भाविकालादि का भी ग्राहक होता है। शंका :- भाविकालादि 10 इन्द्रियग्राह्य न होने से वह अनिन्द्रियजन्य हुआ और असंनिहितार्थ (भाविकालादि) से जन्य होने से भाविकालादि का ग्रहण अति भ्रान्त ठहरा । उत्तर :- शंका अनुचित है, विशेष्य (स्थायि भाव) संनिहित है और उस में अन्वयव्यतिरेकानुविधान से असंनिहित भाविकालादि का बोध मान सकते हैं। ऐसा मत कहना कि - ‘भाविकालादि असंनिहित अर्थ का प्रतिभास नहीं हो सकता' - क्योंकि संनिहित शतसंख्या के ग्रहणकाल में अन्वय-व्यतिरेक से पूर्व की दो-तीन आदि संख्या का ग्रहण हो जाता है 15 वैसे ही विशेष्य (घटादि या नीलादि) प्रतिभास से (स्मृति द्वारा) आकृष्ट भाविकालादि का प्रतिभास संविदित हो सकता है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो अस्खलितरूप से (अभ्रान्तरूप से) एकत्वमूलक उपादेयव्यवहार होता है वह कैसे होगा ? अत एव कहा जा चुका है कि जैसे तिमिरग्रस्त दोषवाले को संनिहित शंख में असंनिहित पीतादि का इन्द्रियकृत प्रत्यक्ष होता है वैसे ही यहाँ भाविकालादि का नीलादि में भी हो सकता है। हाँ उस के सत्यत्व/असत्यत्व में विवाद हो सकता है - हम कह 20 सकते हैं (यानी प्रस्थापित करते हैं) कि कोई बाधकज्ञान का उदय न होने से कालान्तरस्थायिता का भान सत्य है। ऐसा नहीं मानना कि इन्द्रियजन्य/अनिन्द्रियजन्य ज्ञान के प्रयोजक क्रमशः संनिहित/ असंनिहित विषय होते हैं। नियम है तो इतना कि जो प्रतिभास इन्द्रियव्यापार का अनुविधान करता है वह इन्द्रियजन्य होता है। आद्य क्षण में नीलादि वस्तु के ग्रहण के साथ साथ जो भाविकालादि अवस्थिति का ग्रहण होता है वहाँ (नीलादिग्रहणकालीन) इन्द्रियव्यापार मौजूद ही है, तो क्यों उसे 25 इन्द्रियजन्य न माना जाय ? (असंनिहित होने से) अवच्छेदक (विशेषणभूत भाविकालादि) का ज्ञान शक्य न होने से, अवच्छेदक (विशेष्यभूत नीलादि) का भी विशेष्यरूप से भान अशक्य है' – ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि अवच्छेदक का प्रतिभास सिद्ध कर दिया है। [पूर्वापरअस्पृष्टमध्यक्षणमात्र का प्रतिभास अशक्य ] यह भी सोचिये - यदि प्रत्यक्ष सीर्फ पूर्वापरक्षण अस्पृष्ट मध्यवर्ति क्षण का ही भासक है तो 30 न उस का कोई बाधक ज्ञान होगा, न संवादी, फलतः ज्ञानों में भ्रम या प्रमाण ऐसा व्यवहार कभी नहीं हो पायेगा। देखिये - बाधक का मतलब जो पूर्व विषय को जूठलाता हुआ उत्पन्न होता है, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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