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________________ खण्ड-३, गाथा-६ २२९ प्रसक्तः, चक्षुरादिजननात् तत्स्वभावः सकलस्वगतविशेषानाधायकत्वादतत्स्वभावः। न हि जनकत्वादन्यत् सकलस्वगतविशेषाधायकत्वम् । नापि मनस्काराज्जनकत्वम्, धर्म-धर्मिणोरभेदाभ्युपगमात्। अतः शक्तिशक्तिमतोरभेदपक्षे तदतत्स्वभावत्वमेकदैकस्यैकस्मिन् जन्ये पूर्वोक्तनीत्या प्रसक्तम् तेन विधि-प्रतिषेधरूपविरुद्धधर्मसंसर्गाद् भेदः प्रसक्तः। भेदपक्षेऽप्युपादानत्व-सहकारित्वयो रूप-रसवत् तद्भावनियतभावत्वेनैककालत्वेऽपि भेदात् मनस्कार- 5 लक्षणस्य भावस्य भेदः सिद्ध एव । न चैवमापादितभेदस्याप्यबाधितैकावभासिप्रत्ययविषयत्वात् न नानात्वम् अक्षणिकस्यापि पूर्वक्षणग्रहणपरिणामाजहद्वृत्तोत्तरक्षणग्रहणपरिणामवदध्यक्षेणैकतया ग्रहणात् तदतज्जनकाऽजनकस्वभावभेदेऽपि न नानात्वमित्युक्तत्वात् । न च शक्ति-शक्तिमतोः शक्त्योश्चाभेदे ‘इदमुपादानम् इदं च सहकारिकारणम्' इति विभाग: क्षणिकपक्षे भवेत् । यदपि ‘अन्त्यावस्थायां सर्वेषां प्रत्येकमभिमतकार्योत्पादकत्वम् अन्यसंनिधिस्तु स्वहेतुप्रत्ययसामर्थ्यात् नोपालम्भमर्हति । न च भिन्नकार्योत्पत्तिः सर्वेषां तस्यैव जनने 10 सामर्थ्यात् पर्यायाऽनपेक्षणाच्च नोत्पन्नोत्पादोऽपि' इत्युक्तम् तदपि प्राक्तनन्यायेन निरस्तम् । आप के मत से सकल स्वनिष्ठ विशेषाधानकारित्व जनकत्व से भिन्न तो नहीं है। अतः विरुद्ध स्वभाव प्रसक्ति होगी। तथा जनकत्व स्वभाव मनस्कार से भी भिन्न नहीं है, क्योंकि आपने धर्म-धर्मी में भी भेद नहीं माना है। अतः शक्ति और शक्तिमान में अभेद मानने पर, एक ही मनस्कार में एक ही चक्षुआदि कार्य के प्रति एक काल मे ही तत्स्वभावत्व और अतत्स्वभावत्व पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार 15 प्रसक्त है। इस प्रकार, विधिरूप एवं निषेधरूप विरुद्धधर्म संसर्ग के कारण भेदापत्ति प्रसक्त है। [ धर्म-धर्मी शक्ति-शक्तिमान् का भेदपक्ष असंगत ] धर्म-धर्मी का भेद पक्ष मानेंगे तो, जैसे रूप और रस दोनों में ‘एक है तो दूसरा अवश्य होगा' ऐसा अविनाभाव होने पर भी, यानी समकालीनता के रहने पर भी भेद होता है, उसी तरह उपादानत्व और सहकारित्व समकालीन होने पर भी उन का भेद अक्षुण्ण रहने पर, मनस्काररूप भाव में भी 20 भेद सिद्ध होगा ही। शंका :- भेद का कितना भी आपादन किया जाय, किन्तु निर्बाध एकत्वदर्शकप्रतीति का विषय होने से मनस्कार एक ही है, अनेक नहीं है। उत्तर :- तो हमने भी पहले कह दिया है - अक्षणिक पदार्थ में तज्जनक-अतज्जनक स्वभावभेद से भेदापादन कितना भी किया जाय, किन्तु पूर्वक्षणग्रहणपरिणाम को न छोडते हुए उत्तरक्षणग्रहणपरिणाम से अनुबद्ध प्रत्यक्ष अपने विषय को एकत्वरूप से ग्रहण करता है अतः उस में (अक्षणिक में) कोई भेद नहीं है। तथा, क्षणिकवाद में शक्ति-शक्तिमान 25 और शक्तियों का अभेद मानेंगे तो ‘यह है उपादान और यह है सहकारी' ऐसा विभाग भी पूर्ण अभेद के कारण संगत नहीं हो सकेगा। यह जो आशंका है – ‘सभी भाव अपनी अन्त्यावस्था (एक सन्तान का चरम क्षण) में अपने अपने कार्य को उपादानविधया उत्पन्न करते हैं। वहाँ सहकारिक्षण भी अपने अपने हेतु के बल से, बिना बुलाये हाजिर हो जाते हैं तो उन का क्या दोष ? सब मिलते हैं सब कार्य करते हैं किन्तु पृथक् पृथक् कार्य उत्पन्न नहीं होते, एक ही कार्य उत्पन्न होता 30 है क्योंकि उन सभी का एक साधारण कार्य करने का ही सामर्थ्य होता है। तथा, एक ने जो उत्पन्न किया, दूसरे ने भी उसे फिर से, तीसरे ने भी उसे फिर से उत्पन्न किया... इस प्रकार ‘उत्पन्न का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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