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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ 5 स्वसंवेदनाद्वा तथाभूतब्रह्मसिद्धिः । नाप्यनुमानतस्तत्सिद्धिः यतोऽनुमानं कार्यलिङ्गजम् स्वभावहेतुप्रभवं वा तत्सिद्धये व्याप्रियेत ? अनुपलब्धेः प्रतिषेधविषयत्वेन विधावनधिकारित्वात् । तत्र न तावत् कार्यलिङ्गजं तत्र व्याप्रियते, नित्यस्य क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् ततः कार्यस्यैव कस्यचिदसम्भवात्। नापि स्वभावहेतुप्रभवस्य तस्य तत्र व्यापारः ब्रह्माख्यस्य धर्मिणोऽसिद्धत्वेन तत्स्वभावभूतस्य धर्मस्य सुतरामसिद्धेः। न चैतद्व्यतिरिक्तमपरं विधिसाधकं लिङ्गमस्ति तस्य स्वसाध्यप्रतिबन्धनाभावात् । न चाऽप्रतिबद्धं लिङ्गं युक्तम् अतिप्रसंगात् । शब्दरूपान्वयत्वं चाऽसिद्धत्वात् न पारमार्थिकब्रह्मस्वरूपसाधनायालम् । नाप्यागमात्तत्सिद्धिः तस्याऽनवस्थितत्वात्। किंच, ज्ञानमात्रार्थकरणेऽप्ययोग्यं ब्रह्म चामृतम् । तदयोग्यतयाऽरूपं तद्वाऽ(?द्ध्य) वस्तुष्व(त्व)लक्षणम् ।। - [ ] इत्येतत् प्रतिपादितमनेकधा न पुनरुच्यते।। 10 यदपि न्यगादि 'तं तु परमं ब्रह्मात्मानमभ्युदय-निःश्रेयसफलधर्मानुगृहीतान्तःकरणा योगिन एव नहीं है'.... तथा वाणीरूपता यदि लुप्त हो जाय... इत्यादि। निष्कर्ष, बहिरिन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष या स्वसंवेदन से तथाविध ब्रह्म की सिद्धि नहीं शक्य है। [शब्दब्रह्म की सिद्धि अनुमान से दुष्कर ] __ अनुमान से भी शब्दब्रह्म की सिद्धि शक्य नहीं है। कौन से अनुमान से सिद्धि करेंगे ? कार्यलिंगक 15 या स्वभावहेतुक से ? तीसरा प्रकार अनुपलब्धिमूलक भी अनुमान है किन्तु वह अभावसाधक होने से, भावसिद्धि के लिये निकम्मा है। कार्यलिंगक अनुमान से ब्रह्मसिद्धि शक्य नहीं, क्योंकि नित्य होने के कारण ब्रह्म का कोई कार्य ही नहीं हो सकता, क्योंकि नित्य पदार्थ क्रमिक या एकसाथ किसी अर्थक्रिया करे इस में विरोध है। स्वभावहेतुक अनुमान भी नित्यब्रह्मसिद्धि के लिये नपुंसक है क्योंकि जब तक ब्रह्मनामक धर्मी ही अप्रसिद्ध है तो उस के स्वभावभूत हेतुधर्म की सुतरां असिद्धि होगी। 20 इन दो से पृथक् और कोई भावात्मक ब्रह्म के साधक लिंग की सत्ता ही नहीं है क्योंकि होगी तो उस लिंग में अपने साध्य को सिद्ध करने के लिये व्याप्ति ही नहीं मिलेगी। व्याप्तिशून्य लिंग की कोई कीमत नहीं है, क्योंकि तब तो कोई भी वस्तु लिंग बन कर साध्य सिद्ध कर बैठेगा। यदि प्रत्येक प्रतीति में शब्दस्वरूपानुविद्ध के बल से पारमार्थिक शब्दब्रह्म सिद्धि करने जायेंगे तो निष्फलता मिलेगी क्योंकि प्रत्येक प्रतीति में शब्दस्वरूप का अन्वय ही असिद्ध है। 25 आगम प्रमाण से भी उस की सिद्धि दृष्कर है क्योंकि किसी भी आगम का भरोसा नहीं हो सकता। तथा, – “अमृतमय ब्रह्म ज्ञानमात्रस्वरूप अर्थ के करण में भी योग्य (समर्थ) नहीं, अतः अयोग्य होने से स्वरूपहीन है अथवा वह अवस्तुस्वरूप है।" - इस तथ्य का बार बार निरूपण हो चुका है, पुनरावर्तन नहीं करते। [ योगिजन के ब्रह्मदर्शन की मीमांसा ] 30 यह जो कहा है - ‘अभ्युदय एवं निःश्रेयस फलदायी धर्म से आप्लावित चित्तवाले योगिजन ही उस परम ब्रह्मात्मा का दर्शन करते हैं (१६९-२१)' - वह भी असंगत है। कारण :- यदि ब्रह्मात्मा का ऐसा कोई व्यापार हो जिस से उन योगियों को अपने स्वरूप का दर्शनरूप कार्य निष्पन्न हो तभी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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