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________________ 5 १४८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ न, अपेक्षया भेदव्यवस्थितेः, अन्यथा स्वरूपापेक्षयापि भेदप्रसक्तिरिति न कालभेदाद् भेदः प्रमाणगोचरः। नापि देशभेदाद्; (देशभेदाद्) भावभेदे भे(?)देशस्याप्यपरदेशभेदाद् भेद(प्र)श(?स)क्तितोऽनवस्थाप्राप्तेः। न चान्यभेदोऽन्यत्रानुविशतीति न देशभेदादपि तद्भेदः । नापि स्वरूपभेदाद् भावभेदः। न हि समानकालमुद्भासमानयोर्घट-पटयोभिन्नं संवेदनं भेदमवस्थापयति प्रकाशमाननील-सुखादिव्यतिरेकेण तस्याऽनुपलम्भतोऽसत्त्वात्। सत्त्वेऽपि समानकालस्य भिन्नकालस्य वाऽध्यक्षस्य परोक्षस्य वा ग्रहणक्रियासहितस्य तद्विकल(?)स्य वा तस्यार्थग्राहकत्वे(?त्वा)नुपपत्तेरिति ज्ञाननयप्रस्तावप्रतिपादितत्वात् न भेदग्राहकत्वम्। न च तस्य स्वयमर्थात् भेदेनाऽप्रतीतस्य भेदग्राहकत्वम् अन्यथा खरविषाणादेरपि तत्प्रतिश यदि कहें कि - 'प्रत्यक्ष स्वकालीन संनिहित अर्थ का ग्रहण करता है पर्वकालीन रूप का नहीं. यहाँ प्रत्यक्ष का जो पूर्वरूपअग्रहण है यही पूर्वरूपभेद का संवेदन है।' - तो यह व्यर्थ है क्योंकि 10 पूर्वरूपअग्रहण (= ग्रहणाभाव तुच्छ होने) से भेद के वेदन (= ग्रहण) की स्थापना शक्य नहीं। यदि कहें कि - ‘पूर्वरूपभेदवेदन पूर्वरूप अग्रहण का स्वरूप ही है अतः जो पूर्वरूप अग्रहण है यही पूर्वरूपभेदवेदन है।' – नहीं, किसी प्रतियोगी घटादि की अपेक्षा से ही भेद का स्वरूप निश्चित होता है, यदि एवमेव भेदस्वरूप निश्चित होगा तो स्व (मिट्टीपिंड) रूप की अपेक्षा से भी स्व में स्व का भेद प्रसक्त होगा। सारांश, काल भेद से अर्थों का भेद प्रमाणसिद्ध नहीं है। [ देशादिभेदप्रयुक्त भावभेद का असम्भव ] 15 देशभेदमूलक अर्थभेद मानना भी अयुक्त है, क्योंकि देशभेद कैसे (किंमूलक) मानेंगे, अन्यदेशभेद से मानेंगे तो अनवस्था दोषप्रसंग आयेगा। तथा, एक पदार्थभेद कभी अन्यपदार्थ में घुस नहीं सकता, मतलब देशभेद घट-पटादि में घुस कर उन में भेद खडा करे यह असम्भव है, अतः अर्थों का भेद देशभेदमूलक नहीं सिद्ध होता। भावों का भेदस्वरूपमूलक भी नहीं होता। कारण :- एककाल में भासित होनेवाले घट या पट 20 का संवेदन पृथक् पृथक् होने से वे भेद का निश्चय करा सकता नहीं। मतलब, प्रकाशमान (यानी ज्ञानमय) नील एवं सुखादि (या घट-पटादि) से पृथग्रूप से भेदसंवेदन प्रतीत न होने से उस का सत्त्व सिद्ध नहीं होता। कदाचित् किसी प्रकार भेद संवेदन मान लिया जाय, फिर भी उस से स्वप्रतियोगिरूप से अर्थग्रहण की उपपत्ति नहीं हो सकेगी, चाहे वह अर्थ का समकालीन हो या भिन्नकालीन, चाहे वह भेद संवेदन प्रत्यक्ष हो या परोक्ष. चाहे वह भेद संवेदन ग्रहणक्रियाअनविद्ध हो या ग्रहणक्रियाविकल 25 हो। ज्ञाननय (अद्वैतज्ञानप्रतिपादकनयविशेष) की प्ररूपणा के प्रस्ताव में इस तथ्य का प्रतिपादन किया जा चुका है, अतः कोई भी संवेदन भेदग्राहक सिद्ध नहीं हो सकता। यदि कहें कि - ‘अर्थ संवेदन स्वयं भिन्नरूप से अर्थग्रहण के साथ साथ भेदग्राहक बनेगा - तो यह ठीक नहीं क्योंकि स्वयं भिन्नरूप से वह प्रतीत नहीं होता, केवल अर्थरूप से ही भासित होता है। स्वयं भिन्नरूप से भेदग्राहक बनेगा तो गधेसींग के भेद का भी ग्राहक बन जाने का दोषप्रसंग 30 आयेगा। ज्ञान के ज्ञान से (अनुव्यवसाय से) भी अर्थों का भेद गृहीत नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान का ज्ञान भी जब तक भेदग्रहण नहीं करता तब तक वह भेदव्यवस्थापक नहीं बन सकता। अगर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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