SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ उपलम्भसाध्यत्वात् स्यात् तदभावे तु न नीलादयः संविद्रूपाः सिद्ध्यन्ति सिद्धः (?द्धेः) प्रमाणनिबन्धनत्वात्। न च स्वसंवेदनमेव प्रमाणं व्यवस्थाकारि, तत्र दृष्टान्ताऽसिद्धः। प्रदीपादयोऽपि हि परप्रकाश्या एव । च (न च) तेनैवात्मना स एवाधिगन्तुं शक्यम् । न ह्यंगुल्यग्रेण तेनैव तदेवांगुल्यग्रं स्पृश्यते इति । असदेतत्, यतो यथा बाह्यार्थवादे सुखादीनामा(?न्या)त्म( ?)विषये प्रमाणम् तेषामेव वेदनं = वित्तिः 5 फलं सुखादयश्च मेयम्, य(?त)थैवापरेषामात्माऽपरोक्षो मेयः तस्य च प्रकाशरूपता मानम् तत्प्रतिभासः फलम् तदन्यग्राहक(?)भावेऽप्यनवस्थाप्राप्तेर्मतनि(?मि)यमेव मेय-मान-फलानां व्यवस्था सर्वत्र नीलादौ योजनीया विज्ञानवादे। अथ नीलादीनां जडत्वाद् न संविदस्ति, सुखादेरात्मनश्च प्रकाशरूपत्वात् संविदिति अत्रोच्यतेतत्रापि ज्ञानवादेऽनुभवात्मकत्वात् प्रकाशरूपत्वापत्ते: नीलादयः स्वात्मनः संविदि कर्त्तव्यायां योग्याः। न 10 हि ते तत्र दर्शने जडरूपाः, संविदस्तथाऽयोगादित्युक्तेरिति । तस्मात् सा नीलादीनां प्रकाशाख्याभेदोल्लेखः । नीलादि नीलदर्शन के प्रति प्रमितिक्रिया का कर्ता यानी प्रमाता बन जायेगा। तथा नेत्रादि प्रमितिकरण होने से प्रमाण बनता है. उपलम्भसाध्य होने से अर्थमिति (= प्रमिति) फल है. यहाँ नेत्रादि करण या नीलादि अर्थ के न होने पर नीलादि संवेदनरूप खुद ही उक्त व्यवस्थाकारक प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि स्वयं अपनी व्यवस्था करनेवाला कोई दृष्टान्त नहीं है, उस से उलटे ही दृष्टान्त है - प्रदीपादि 15 भी पर(=स्वज्ञान से) प्रकाश्य ही है। स्वयं अपनी व्यवस्था (= प्रकाश) नहीं करते हैं। अपने ही द्वारा कोई स्व का अधिगम कर नहीं सकता। अंगुलि का अग्रभाग अपने ही द्वारा स्व (= अंगुलीअग्र) का स्पर्श नहीं कर सकता। उत्तरपक्ष :- यह सब गलत है। बाह्यार्थवादियों के मत में जैसे सुखादि अर्थ (प्रमेय हो कर भी) स्वविषय में प्रमाण होता है और उन का वेदन यही वित्ति यानी फल (= प्रमिति) होता है 20 (यथैवा. के बदले तथैवा. पाठ होना चाहिये) उसी प्रकार हमारे मत में बोधात्मा अपरोक्ष मेय (= प्रमेय) हो कर स्वविषय में प्रकाशरूप होने से प्रमाणरूप भी होता है, और उस का प्रतिभास ही फल, यह मत है। यदि उस के बदले, स्व को स्व का ग्राहक न मान कर अन्य को ग्राहक न मान कर अन्य को ग्राहक मानेंगे तो उस का भी अन्यग्राहक उस का भी अन्य... इस प्रकार अनवस्थादोष आयेगा। सुखादि भाँति ही नीलादि सर्व वस्तु के लिये विज्ञानवाद में यही मेय-मान-फल की व्यवस्था 25 समझ लेना जिस से कि अनवस्था दोष को टाला जा सके। [नीलादि अनुभवस्वरूप है - विज्ञानवादी ] आशंका :- नीलादि तो जड होने से संविद् रूप नहीं है, आत्मा और सुखादि प्रकाशरूप होने से संवेदनमय होते हैं। ____ उत्तर :- यहाँ विज्ञानवाद में तो नीलादि भी अनुभवात्मक होने से प्रकाशरूपता को प्राप्त होने 30 से, अपने स्वरूप के संवेदन को करने के लिये योग्य, यानी समर्थ ही हैं। विज्ञानवाद के मत में कहा A. अत्रार्थे 'स्वात्मनि क्रियाविरोधः, न हि सुशिक्षितोपि नटबटुः स्वस्कन्धमारोढुं शक्नोति' इत्यादयः बहवो न्यायाः प्रसिद्धाः । विशेषसन्दर्भार्थिना तु भूतपूर्वसम्पादने तृतीयखण्डे पृष्ठ ३६६ मध्ये तृतीयाटीप्पणी दृष्टव्या। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy