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________________ १२८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ संवादः स्यात् । अथ भिन्नविषयस्तदुदयः संवादः, तत्रापि यदि नाम विषयदर्शनान्तरमुदयमासादयति पूर्वदृशस्तु सत्यत्वे किमायातम् ? अन्यथा रजतज्ञानस्य शुक्तिकाज्ञानोदयात् सत्यत्वप्रसक्तिः। Bअथार्थक्रियाप्रसूतिः संवाद: नन्वर्थक्रियापि पूर्वानुभूतादेवोदकादेः किं नाभ्युपेयते ? अथाऽविद्यमानं पूर्वानुभूतं जलादि न पानाद्यर्थक्रियामुपजनयितुं समर्थम्, तर्हि स्वप्नादिदर्शनमपि तदविद्यमानं कथं जनयितुमलम् ? न ह्यविद्यमानस्य तत्रापि कारणत्वं युक्तम् चिरतरातीतस्यापि तत्प्राप्तेः । न चार्थक्रिया-ज्ञानयोः कश्चिद् विशेषो यतो ज्ञानमर्थमासादयति । नार्थक्रिया अर्थाभावेन दृष्टेति संनिहितार्थ( ?)जन्मा ननु तथाभूतार्थाभावेऽपि स्वप्नदशायामर्थक्रियोपलभ्यते एवं जाग्रद्दशायामपि पित्तोपहततनोर्मलयजरसादिसंस्पर्शो दहन्निवासा (? दाहावभासः) कथं ? नार्थक्रियान्यथा दृष्टान्तसंवादः इति सर्वं वासनाप्रतिबद्धं दर्शनं बाह्यार्थसविधान(?)क्रियमिति स्वरूपप्रतिभासाः सर्वत्र प्रत्यया न बाह्यार्थावभासिन इति व्यवस्थितम् ।??] तेन नार्थाभावः प्रत्यक्षवेद्यः 10 तत्र बहिरर्थप्रतिभासनात्' (९६-३) इति निरस्तम् बहिरर्थप्रतिभासनस्योक्तन्यायेनाऽसिद्धत्वात् । [??न च प्रत्यक्षतोऽर्थाभावः साध्यते यतः प्रत्यक्षविरोधो दोषः पक्षस्य स्यात् । अपि तु प्रकाशरूपता नीलादीनां साध्या, सा तु यथोक्तप्रकारेण प्रत्यक्षसिद्धैवेति कथं न विज्ञप्तिमात्रता ?! प्रत्यक्षप्रतीते च ज्ञानमात्रे न किंचिदनुमानेनेति। न च तद्भावां(?वि) दोषावकाशोऽस्माकम् । न च ‘सहोपलम्भनियमाद्' क्यों नहीं मानते हैं ? यदि कहें कि – 'पूर्वदृष्ट जलादि अविद्यमान होने पर पान आदि अर्थक्रिया 15 निपजाने को सक्षम नहीं होता' - तो प्रश्न दूसरा - स्वप्नादिदृष्ट पदार्थ उसकाल में सत् न होने पर भी अर्थक्रिया निपजाने को कैसे सक्षम होगा ? उस काल में जो सत् नहीं उस में कारणता मानना अयुक्त है, क्योंकि तब तो युगों पूर्व अतीत पदार्थ भी अर्थक्रिया सम्पन्न कर देगा। ज्ञान कहो या अर्थक्रिया, कोई फर्क नहीं है, क्योंकि ज्ञान ही अर्थ यानी प्रयोजन सिद्ध करता है। यदि कहें कि - अर्थ विरह में अर्थक्रिया नहीं होती, संनिहित अर्थ से ही वह उत्पन्न होती है - तो बताओ 20 कि तथाविध अर्थ के न रहने पर भी स्वप्नदशा में अर्थक्रिया होती है वह कैसे ? अरे ! जागृतिदशा में भी जिस के देह में प्रचण्ड पित्तप्रकोप हुआ है और चन्दन का विलेपन भी किया गया है उसे जलन का अनुभव कैसे ? वास्तव में तो अर्थक्रिया के बिना आप का दृष्टान्त भी संवादयुक्त नहीं होगा। निष्कर्ष :- दर्शनमात्र (अर्थ न होते हुए भी) ही वासनाप्रेरित अर्थाकारगर्भित होता है अत एव बाह्यार्थसदृश ही क्रियासम्पादक होता है, इस लिये सिद्ध होता है कि ज्ञानमात्र स्वरूपभासक ही 25 होता है न कि बाह्यार्थावगाहि। अत एव - ‘प्रत्यक्ष से अर्थाभावग्रहण नहीं होता क्योंकि प्रत्यक्ष में सिर्फ अर्थ का ही प्रतिभासन होता है' - यह विधान (९६-१७) निरस्त हो जाता है, क्योंकि उपरोक्त विचार-विमर्श से तो अर्थ का प्रतिभासन भी न्यायसिद्ध नहीं ठहरता। [ नील-नीलबुद्धि का अभेद प्रत्यक्षसिद्ध-अनुमान से व्यवहारसिद्धि ] विज्ञानवादी :- हम नीलादिअर्थाभाव प्रत्यक्ष से सिद्ध होने का मानते ही नहीं जिस से कि हमारे 30 पक्ष में उक्त प्रकार से प्रत्यक्षविरोध दोष प्रसक्त हो सके। हम तो इतना सिद्ध करते हैं कि नीलादि (स्वतन्त्र बाह्य वस्तु नहीं है किन्तु) प्रकाश (= ज्ञान)मय हैं, नीलादि की ज्ञानमयता तो उपरोक्त प्रकार से जब प्रत्यक्षसिद्ध है तो विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि क्यों नहीं होगी ? जब ज्ञानमात्रता प्रत्यक्षसिद्ध है तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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