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खण्ड-३, गाथा-५
१२५ परीत्यप्रयु(?स)क्तिः। यदि पुनर्वेपरीत्यं शुक्तिकादि रजताद्याकारेण विपरीतेन ख्यातीति विपरीतख्यातिरित्यथ पक्षाभ्युपगमः, सोप्ययुक्तः अन्यरूपेणान्यस्य परिच्छेदाऽयोगात्। तथाहि
किं रूपद्वयनिर्भासेऽध्यारोप: कल्प्यते, उतैकरूपनिर्भासे ? यदि प्रथमः पक्ष:- तदा द्वयं शुक्तिका रजतस्वरूपं चाऽऽत्मस्वरूपेण(?पा)पेक्षया सर्वे(?त्यै)व ख्यातिः। अथैकं रूपं तत्र चकास्ति तत्रापि यदि रजतमेकं स्वरूपेण भाति, कथमध्यारोपो?ऽन्याकारपरिहारेण तस्यैवैकस्य प्रतिभासनात् ? अथ शुक्तिका 5 स्वरूपेण प्रतिभाति, तत्रापि न विपरीतख्याति:, अन्यरूपविविक्तायास्तस्या एव परिच्छेदाद् । अन्यस्यान्याकारेण प्रतिभासना(?न)मन्तरेण ना रजतदृग्ग्राह्यो, परिमलादेरपि रूपदृग्ग्राह्यताप्रसक्तेः । किञ्च, यद्यपरोक्षतया 'रजतम्' रजतसंविदवभासयति कथमस्या विपरीतख्यातित्वम् ? न चान्यदेव देशादिमद् रजतमन्यदेशादितयाऽभासयतीति विपरीतख्यातिः, यतो देशान्तरादिमत्ता रजतादेः किं तेनैव दर्शनेन गृह्यते ? आहोस्वित् पूर्वदर्शनेन ? तत्र न तावत्तेनैव, तत्र वर्तमानदेशादिमत्तया रजतादेरवभासनात्, तद्धि तद्देशादिमत्तयैव तावद् गृह्णाति 10 उत्तरक्षण में तो स्वरूपच्युत होती ही है तो ख्यातिमात्र को विपरीतख्याति मानेंगे ?
Bदूसरा विकल्प :- (विपरीत वस्तु की विपरीताकारतया ख्याति) यहाँ तो सर्व ख्यातियाँ विपरीतख्याति बन बैठेगी क्योंकि अन्य-अन्य ख्यातियों की अपेक्षया विपरीत ही होती है। यदि वैपरीत्य का तात्पर्य ऐसा हो कि ‘सीप आदि स्वीय आकार से नहीं किन्तु रजतादि अन्य आकार से ज्ञात होना' यह है विपरीत ख्याति - इस पक्ष का स्वीकार भी अयुक्त है, क्योंकि एक वस्तु का अन्यरूप से भान सम्भवित नहीं है। 15
[ सीप और रजत का भान सत्य है या विपरीत ? ] स्पष्टता :- अन्यथाख्यातिवादी जो अन्यरूप का आरोप मानते हैं वह दो रूपों का निर्भास होने पर या एक रूप का - ये दो प्रश्न हैं। प्रथम पक्ष में यदि सीप और रजत दोनों का निर्भास अपने अपने स्वरूप से होता है तो वह अपने अपने स्वरूप की अपेक्षा से सत्य ख्याति ही हयी। यदि एक ही रूप का, वह भी रजत का ही निर्भास होता है तो यहाँ आरोप का प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि अन्यरूप को 20 छोड कर एक सिर्फ रजत ही वहाँ भासित होता है। यदि रजत नहीं सिर्फ सीप ही वहाँ अपने स्वरूप से दिखती है तो वहाँ भी विपरीत ख्याति नहीं है, अन्यरूप से विनिर्मुक्त सिर्फ सीप का ही वहाँ भान होता है। (यहाँ अन्यस्यान्या... मन्तरेण इस पाठ के बाद तस्या अभावात्, न हि सीपाकारो रजतदृग्ग्राह्यो - ऐसा पाठ मान कर विवेचन करना है) एक वस्तु का अन्यआकार से प्रतिभास के विना विपरीत ख्याति होती नहीं। वस्तुतः सीपाकार कभी भी रजतदर्शन का ग्राह्य नहीं होता (एवं रजताकार सीपदर्शन ग्राह्य 25 नहीं होता)। यदि ऐसा मानेंगे तो परिमलादि भी रूपदर्शन का ग्राह्य बन जायेगा।
[ अन्यथाख्याति की गहराई से समालोचना ] और एक बात :- यदि रजतसंवेदन में अपरोक्षरूप से 'रजत' ऐसा अवभास होता है तो उसे विपरीतख्याति क्यों कर कहा जाय ? यदि कहें – ‘अन्य अन्य देश-कालादिगत रजत स्वदेश-कालादिवृत्ति रूप से भासित होता है इस लिये हम उसे विपरीतख्याति कहेंगे।' तो यहाँ दो प्रश्न :- क्या रजतादि 30 की देशान्तरवृत्तिता उसी रजतदर्शन से दिखती है या पूर्वदर्शन से ? यहाँ, उसी दर्शन से तो नहीं दिख सकती क्योंकि उस दर्शन से तो रजतादि की वर्तमान (पुरोवर्ति) देशादिवृत्ति का ही भासित
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