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________________ खण्ड-३, गाथा-५ १२३ चाकारद्वयमाभाति नीलादेरेवाकारस्य भासनात्। नैतदेवम्- दृश्य-दर्शनयोरेक(राद्?) निर्भासादेवाकारद्वयप्रतिभासाभावात् । यदि पुनर्लाह्याकारो ग्राहकाकारश्च पृथक् प्रतिभातस्ततो भेदप्रतिभासात् ज्ञानाद्वैतस्व न भवेत्। तस्मात् दृश्यदर्शनयोरेकाकारोपलम्भादेकत्वं व्यवस्थितमिति भ्रान्तज्ञानावसेय इव रजताकारः सत्यदर्शनाधिगम्योऽप्यसौ ज्ञानस्वभाव एव। [ ?? न च बहीरूपतया प्रतिभासनाद् भ्रान्तसंविदवभासिनोऽपि रजतासिद्धात्तसंविद्रूपता सिद्धा, तस्य 5 बाह्यार्थत्वेप्यवहारो भेदप्रसक्तेः । न च सत्यासत्ययोर्लोकेतराभ्यां व्यवहारभेद: वितथाज्ञानावभासिनस्तस्याऽलौकिकत्वपरिज्ञानाभावाद् । न तावदस्याऽलौकिकत्वं तज्ज्ञानादेव, तत्र तस्याऽप्रतिभासना(द्)। यदि तु तत्र प्रतिभासेत तदर्थक्रियार्थिनस्तत्र वृत्तिर्न भवेत्। अथालौकिकोपि रजतादिौकिकतया तत्र अवभासत इति प्रवृत्तिर(स)त्वेवमलौकिकतया तत्र भातीति विपरीतख्यातिरिति न सर्वेषां प्रतिभासमानानां सत्यता। किञ्च अलौकिके लौकिकं रूपं तस्य सिद्ध्यत् किं सत्यम् उताऽसत्यं (असत्यं?) कथमवभाति ? अथ 10 सत्यम् न व्यवहारभेदः । यदि पुनरलौकिके यल्लौकिकं रूपमाभाति तदा लौकिकरूपतया सत्यम्, नन्वत्राप्यलौकिके उत्तर :- वैसा है ही नहीं, दृश्य और दर्शन दोनों का एकरूप ही निर्भास होता है अतः दो आकार प्रतिभास है ही नहीं। हाँ, यदि ग्राह्याकार और ग्राहकाकार ऐसा पृथक् प्रतिभास होता तब तो भेदप्रतिभास के कारण ज्ञानाद्वैत सिद्ध नहीं होता। अतः दृश्य और दर्शन के एकाकार उपलम्भ के बल से एकत्व ही स्थापित होता है। निष्कर्ष, जैसे भ्रमज्ञान में रजताकार सत्य नहीं होता वह 15 सिर्फ ज्ञानरूप ही होता है, वैसे ही सत्यदर्शन में भासनेवाला नीलाकार भी वास्तव में सत्य नहीं किन्तु वह भी ज्ञानस्वभावरूप ही होता है - यह सिद्ध हो गया। [भ्रमज्ञान के रजताकार की तरह सब ज्ञानमय ] (वाचकगण सावधान - न च बहीरूपतया... से लेकर विज्ञानवादसमाप्ति - '.....भेद ऋजुसूत्रः (१३८-८)' पर्यन्त, पूरा लेख भूतपूर्वसम्पादकों के अभिप्राय से अशुद्धिबहुल है। इस कारण से यद्यपि 20 उस का विवेचन लिखना उचित नहीं, स्थानाशून्यार्थ ही यथामति यह लेखनप्रयास समझा जाय ।) ‘बाह्यरूप से भासित होने के कारण भ्रान्तज्ञान में प्रतिबिम्बित रजत भले ज्ञानाकाररूप हो, सत्यज्ञान में भासमान रजत की संवेदनरूपता सिद्ध नहीं होती' ऐसा कहना ठीक नहीं क्योंकि सत्यरजत बाह्यार्थरूप होवे फिर भी सत्य-मिथ्या रजत का बाह्य व्यवहार में सादृश्य यानी अभेद प्रसक्त होगा। यदि कहें कि - ‘एक सत्य होने से लोकसिद्ध है और दूसरा मिथ्या होने से लोकबाह्य, इस प्रकार व्यवहार 25 का भेद होता रहेगा' - तो यह ठीक नहीं क्योंकि मिथ्याज्ञान में भासनेवाले रजत में लोकबाह्यता का ज्ञान करने के लिये उस वक्त कोई उपाय नहीं होता। मिथ्यारजतज्ञान से ही रजत में लोकबाह्यता का भान शक्य नहीं है क्योंकि मिथ्याज्ञान में लोकबाह्यता का प्रतिभास नहीं होता। यदि भ्रमज्ञान में लोकबाह्यता का प्रतिभास माना जाय तो रजत क्रियार्थीयों कि एक बार जो वहाँ ग्रहणार्थ प्रवृत्ति हो जाती है वह होगी ही नहीं। यदि कहें – 'लोकबाह्य भी रजत वहाँ लौकिकरूप से ज्ञात होता 30 है इस लिये उस के ग्रहणार्थ प्रवृत्ति हो सकती है' - तो भले वहाँ अलौकिकरूप से भान होता हो, वह तो अन्यथाख्याति ही हुई, अतः इतना तो मानना पडेगा कि जो भी प्रतिभासित होते है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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