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________________ खण्ड-३, गाथा-५ १२१ वात्मसत्ता परिच्छेत्तुर्बोधरूप()एवात्मनोऽप्रत्यक्षतैव भवेत् तस्यान्यरूपाभावात् न च बोधरूप (ए)वात्मा प्रत्ययान्तरेण प्रकाश्यते तस्य प्रकाशरूपत्वात्। यो ह्यप्रकाशात्मप्रकाशात्मकः स्वरूपेणैव तस्य प्रकाशनात् ??] यदात्मा प्रकाश्यते तदा स्वसंवेदनरूप एवाऽवगन्तव्यः। यथा चात्मा अपरप्रकाशाभावात् स्वप्रकाश:, नीलादयोऽपि तथैवाऽभ्युपगन्तव्यास्तेषामप्यपरप्रकाशाऽसंवेदनात्। ___ यदप्युक्तम् ‘बुद्धिः परोक्षा' इति, अत्रापि बुद्धेः प्रत्यक्षतापत्तिः। [?? तथाहि- अर्थ(?)प्रत्यक्षता 5 बुद्धिसत्ता तत् तस्यैवाव्यक्तं स्वरूपम्, यदि पदार्थस्वरूपाया (तथा सर्वार्थाना) प्रत्यक्षतेति सर्व सर्वदर्शी भवेत् । अथैतद्दोषपरिजिहीर्षायां द्वया(मिन्द्रिया)दिसामग्र्यन्तर्गतः प्रतिनियत एवार्थः कस्यचिदध्यक्षीभवतीत्युपगम्यते; नन्वेवं सामग्रीवशात् कस्यचिदर्थस्य प्रत्यक्षं स्वरूपमुपजातमिति स्वसंविदितमेवार्थस्वरूपमायातम्। अथ दर्शनसत्ता(?त्तया) पूर्वस्य प्रत्यक्षता तर्हि परोक्षतया तस्या अप्रतिभासने तदव्यतिरिक्तपदार्थप्रत्यक्षताया अप्यप्रतिभासनादर्थः प्रत्यक्षो न भवेत् । न च प्रत्यक्षतायमा(?एवायम)र्थः न तु तस्यां विदितायामिति वक्तव्यम्, 10 तस्या अवेदने प्रत्यक्षीभूतार्थाऽवेदनात् । यतश्चक्षुरादिसामग्रीतः प्रादुर्भूताऽर्थप्रत्यक्षत(?)या एव भाति तदार्थः में है – यो ह्यप्रकाशात्मकः स व्यतिरिक्तं स्वप्र(का)शमपेक्षते ननु(?तु) यः प्रकाशात्मकः व. बा. आदर्शयोः - इस पाठ के आधार से विवेचन ऐसा होगा कि -) जो अप्रकाशरूप होता है वह अतिरिक्त प्रकाश की अपेक्षा रखता है न कि जो प्रकाशरूप होता है, क्योंकि वह तो स्वरूप से ही अपने को प्रकाशित करता है।) सारांश, यदि आत्मा प्रकाशित होती है तो उसे स्वसंवेदनात्मक ही स्वीकारनी चाहिये। 15 निष्कर्ष:- जैसे आत्मा अन्यप्रकाश के विना स्वप्रकाश ही होती है वैसे नीलादि भी स्वप्रकाश माना जाय, क्योंकि अन्य प्रकाश से उस का संवेदन संभवित नहीं है। [ बुद्धि परोक्षतावादी मीमांसक के मत की समीक्षा ] मीमांसक ने जो यह कहा था - 'बुद्धि परोक्ष है' यहाँ तो उलटे बुद्धि में प्रत्यक्षता की आपत्ति आयेगी। [स्पष्टता :- बुद्धिसत्ता यदि अर्थप्रत्यक्षतारूप है तो वह अर्थ का ही अव्यक्तस्वरूप हो गया। 20 (मतलब कि अर्थ प्रत्यक्ष होगा तो बुद्धि भी प्रत्यक्ष होगी) यदि पदार्थ स्वरूप है तब तो सभी अर्थों में प्रत्यक्षता रह जाने से सभी ज्ञाता (कोशिश करने पर) सर्वदर्शी बन जायेगा। यदि उन दोषों से छूटने के लिये इन्द्रियादिसामग्री के अन्तर्भूत नियत कोई अर्थ नियत किसी व्यक्ति को ही प्रत्यक्ष होता है - ऐसा मानेंगे तो यह भी कह सकते हैं कि इन्द्रियादिसामग्री से किसी अर्थ में प्रत्यक्षस्वरूपता का आविर्भाव होता है - इस प्रकार से तो यही फलित हुआ कि अर्थस्वरूप स्वसंविदित ही होता 25 है। यदि ऐसा मानेंगे कि प्रत्यक्षता परोक्ष होने से, उस का प्रतिभास शक्य न होने पर, उस से अनतिरिक्त पदार्थ-प्रत्यक्षता का भी प्रतिभास न हो सकने से अर्थ भी प्रत्यक्ष नहीं हो पायेगा। ऐसा नहीं कहना कि - ‘प्रत्यक्षता ज्ञात होने की जरुर नहीं, अर्थ ही प्रत्यक्ष होता है ' - क्योंकि प्रत्यक्षता विदित न होने पर प्रत्यक्षीभूत अर्थ का भी वेदन शक्य नहीं है। कारण :- चक्षुआदि सामग्री से जब अर्थ प्रत्यक्षरूप से स्फुरता है तभी प्रत्यक्षताविशिष्ट अर्थ ही प्रत्यक्ष होता हुआ विदित होता है। 30 यदि प्रत्यक्षता का अवगम नहीं होगा तो तदन्तर्भूत अर्थात्मा का भी अवगम नहीं होगा, फिर कैसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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