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________________ ११४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ विरहय्य नान्या संवित् सता(?ती) कदाचित् प्रतिभातीत्यसती सा कथमर्थग्राहिणी भवेत् ? न च सुखादिकमेवाहंकारास्पदं(स्य?स) तं(?त्) हृदि परिवर्त्तमानं नीलादेाहकम्, उत्पादे: (?सुखादे:) प्रतिभासमानवपुषो ग्राहकत्वाऽनुपपत्तेः । तथाहि- सुखादयः स्वसंविदिता हृदि प्रकाशन्ते नीलादयस्तु बहिस्तथाभूता एवाभान्ति, न च परस्पराऽसंसृष्टवपुषोस्तयोः समानकालयोर्वेद्यवेदकता, तुल्यकाल(त)या प्रकाशमाननील-पीतयोरपि 5 परस्परतस्तद्भावापत्तेः। न च सुखादिराकारः स्वपरप्रकाशतया प्रतिभासमानो नीलादेर्वेदकः सवितृप्रकाश इव घटादीनाम् । यतो 'दर्शनात्मनः प्रकाश एव किं बहिरावभास: आहोस्विद् दर्शनकाले तेषां प्रकाशात्मता ? 'आद्ये विकल्पे ज्ञानात्मनः प्रकाशः स्वसंविद्रूपोऽनुभवः तत् ज्ञानस्य रूपं न बाह्यार्थात्मनाम्, अन्यथा प्रत्यक्षात्मतया तयोरभेदप्रसङ्गः । तन्न दर्शनानुभवः एव नीलानुभवः। अथ दर्शनसमये प्रत्यक्षं नीलादि10 स्वरूपं तेषामनुभवः, नन्वत्रापि दर्शनोदयसमये यदि पदार्थप्रत्यक्षता तथा सति सामग्रीवशात् प्रत्यक्षाकारं नीलमुत्पादितमिति दर्शनवत् तत् स्वसंविदितं प्रसक्तम् । अत एव दृष्टान्तोऽपि अत्राऽसङ्गतः, तथाहिसवितृप्रकाश: स्वरूपनिमग्न एवाभाति घटादिरपि स्वात्मनिष्ठ एव भासत इति नानयोरपि परस्परं प्रकाश्यअर्थाकार (नीलाद्याकार) को छोड कर अन्य कोई संवेदन अनुभवसिद्ध है नहीं। कारण, बाह्यरूप से भासमान नीलादि और आन्तररूप से स्फुरायमाण सुखादि दोनों स्वसंविदित, इन के अलावा और कोई 15 संवेदन कभी सद्भूत नहीं होता, फिर भी किसी को वैसा भासे तो वह मिथ्या ही है, मिथ्या संवेदन को अर्थग्राहि कैसे माना जाय ? यदि कहें कि - ‘वह जो हृदय में स्फुरायमाण अहंरूप से वेद्यमान सुखादि है वही नीलादि का ग्राहक है' - तो यह मिथ्या है क्योंकि प्रकाशमानपिण्डस्वरूप सुखादि में किसी भी प्रकार से ग्राहकता का मेल नहीं बैठता। स्पष्टता :- हृदय में जैसे स्वसंहि अनुभूत होते हैं वैसे ही बाह्याकार नीलादि भी स्वसंविदित (यानी ज्ञानमय) भासित होते हैं, परस्पर 20 समकालीन उन दोनों पिण्डों में कोई मेल ही नहीं है जिस से कि ग्राह्य-ग्राहकता बन सके, अन्यथा समकाल में भासमान नील और पीत दो पिण्डों में भी परस्पर ग्राह्यग्राहक भाव गले पडेगा। प्रतिवादी :- जैसे सूर्यप्रकाश अपना एवं घटादि अर्थान्तर का प्रकाश करता है वैसे ही सुखादि आकार (ज्ञान) भी स्व-पर प्रकाशक होने से भासमान नीलादि का वेदक होता है। वादी :- यह भी निषेधार्ह है क्योंकि दो प्रश्न खडे होते हैं - १दर्शनात्मा का स्वप्रकाश ही 25 बाह्यार्थावभासरूप है या २दर्शनकाल में बाह्यार्थों की स्वतन्त्र प्रकाशरूपता स्फुरित होती है ? [ बाह्यार्थ एवं संवेदन के अभेदप्रसंग से विज्ञप्तिमात्रसिद्धि ] प्रथम विकल्प :- ज्ञानात्मा का प्रकाश तो स्वसंवेदनात्मक अनुभवस्वरूप होता है जो ज्ञान का ही स्वभाव है बाह्यार्थपिण्डों का नहीं, यदि तथाकथित बाह्यार्थ का भी यही स्वभाव है तब तो वे खुद प्रत्यक्षात्मक होने से ज्ञान और अर्थ का अभेद प्रसक्त होगा (जो प्रतिवादी को अनिष्ट है)। तात्पर्य, 30 दर्शनानुभव और नीलानुभव एक नहीं हो सकता। दूसरा विकल्प :- दर्शनकाल में यदि प्रत्यक्ष नीलादि स्वरूप होता है तो यहाँ भी दर्शनोत्पत्तिकाल में यदि पदार्थप्रत्यक्षत्व माना जाय तो मतलब उस का यह होगा कि सामग्री के विचित्र प्रभाव से प्रत्यक्षाकार नील को उत्पन्न किया गया, फलतः यहाँ नील Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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