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________________ खण्ड-३, गाथा-५ १०३ ज्ञानस्यानुपलक्षणात्। न चान्तःसुखाज्ञा(?द्या)कारज्ञानोपलम्भात् सिद्धो हेतुः इति वक्तव्यम्, सुखादेर्बाह्य(?)संवेदनं प्रति व्यापाराऽसंवेदनात्। न हि सुखादयः स्वरूपनिमग्नतया प्रतिभासमानास्तदैवार्थग्राहितया प्रतीयन्ते। न च समकालप्रतिभासनात् व्यापारमन्तरेणापि नीलादिग्राहकाः, तेषामपि तद्ग्राहकतापत्तेः । यदि च नीला(दी)नां सुखादिकं ग्राहकं तथा सति तदभावे नीलादीनां ग्रहणं न स्यात् । न हि यद् यद्ग्राह्यं तत् तदभावे 5 प्रतिभाति चक्षुरभाव इव रूपम्, चक्षुःसमवधाने च सुखाभावेपि नीलमाभाति [?? नापि तस्य तद्ग्राहकम् । यदि च सुखादिरूपैव संविद् नान्या एवं सति सुखाद्यभावेपि नीलादिकस्य स्फुटतया प्रतिभासात् तदा मानसस्य च सुखादेर्नीलावभासा(भा)वेप्यवभासनत्वाऽसिद्धो नीलादीनां ग्रहणं न स्यात् नहि यद् यदग्राह्य तत् तदभा(व)द्धियोः सहोपलम्भनियम: नियतकादाचित्कसहोपलम्भतो (त)योनियमो युक्तः, नीलपीतयोरपि का उपलम्भ होने से सहोपलम्भ हेतु असिद्ध है, उस के मत में बाह्यार्थ के सिवा प्रत्यक्ष में ज्ञान 10 का वेदन होता नहीं है। [ सहोपलम्भनियम हेतु की सिद्धि के प्रयास का निरसन ] विज्ञानवादी :- नीलादि को देख कर भीतरी सुख-दुःखादि आकार ज्ञान का बाह्यार्थ संकलितरूप से उपलम्भ होता है इस से ही नीलादि सुख-ज्ञान का अभेदसाधक सहोपलम्भ हेतु सिद्ध होता है। अर्थवादी :- ऐसा नहीं है, सुख या सुखाकार ज्ञान बाह्यार्थ संवेदन के लिये व्याप्त नहीं होते। 15 सुखादि तो अपने स्वरूप में मग्न होते हुए भासित होते हैं, बाह्यार्थग्राहकरूप से वे कभी प्रतीत नहीं होते। विज्ञानवादी :- विना व्यापार भी नील और ज्ञान समानकाल में भासते होने से संवेदनों को नीलादिग्राहक मानना होगा। अर्थवादी :- हम भी कहेंगे कि विना व्यापार भी नीलादि बाह्य पदार्थ अपने सुखादिरूप संवेदनों 20 के ग्राहक बनेंगे चूँकि समकाल में भासित होते हैं। यदि आप सुखादि को (सुखाभिन्नसंवेदन को) नीलादि के ग्राहक मानेंगे तो यह विपदा होगी कि सुखादि के विरह में कभी भी नीलादि का ग्रहण नहीं होगा। नियम देखिये - जो जिस से ग्राह्य बनता है वह उस के अभाव में गृहीत नहीं होता जैसे नेत्र के विरह में रूप। दूसरी ओर हकीकत है कि सुख के विरह में भी नेत्रसंनिधान में नील का भान होता है। [यहाँ कौंस में रहा हुआ पाठ अशुद्ध है, यद्यपि अशुद्ध पाठ का विवेचन अशक्य 25 है, फिर भी शुद्ध पाठ की कल्पना कर के संभवित भावार्थ लिखने का प्रयास है - वास्तव में तो सुखादि नीलादि का ग्राहक ही नहीं है, विज्ञान यदि सुखादिरूप ही होता, भिन्न नहीं - तो ऐसा मानने पर सुखादि के विरह में नीलादि का स्फुटरूप से प्रतिभास होता है वह नहीं होता। तथा नीलादि अवभास न होने पर भी मानसिक सुखादि अवभास होता है वह असिद्ध हो जाने से नीलादि का ग्रहण नहीं होगा। जो जिस से अग्राह्य होता है वह उस के विना भी भासित होता है अतः 30 नील और विज्ञान का सहोपलम्भनियम नहीं रहा। अनियत एवं कादाचित्क सहोपलम्भ के आधार पर अभेद का नियम युक्तियुक्त नहीं। अन्यथा, कदाचित नील-पीत उभय का सहोपलम्भ होने पर उन का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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