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________________ खण्ड - ३, गाथा - ५ ९९ यद्येककालः सोऽसिद्ध: स्वप्रतिभाससमये रजतस्यानुपलम्भाऽयोगात् । कालान्तरभावी रजतानुपलम्भः तदैव तस्याऽसत्त्वम् न पूर्वकालम् । न च भाविकाले पूर्वदर्शनप्रत्यस्तमयात् स्वदर्शनकालावधेरर्थस्याभावः, अतिप्रसङ्गात्। तदेवं विशददर्शनावभासि सत्यं बहिरर्थस्वरूपम् यथा स्वसंवित्प्रतिभासमानं विज्ञप्तिस्वरूपम् तथा च तैमिरिकदर्शनावभासीन्दुद्वयमिति स्वभावहेतु:, असतः प्रतिभासाऽयोगात् । अथेन्दुद्वयादेर्बहिः सत्त्वे किमिति शुद्धदृशि न प्रतिभास: ? यत्र हि बहिरर्थोऽस्ति तत्र योग्यदेशादित: 5 सकलसामग्रीप्रभवसमस्तजनसंविदि प्रतिभासमाधत्ते यथा नीलादिः, न चेन्दुद्वयं नरान्तरविशददृशि प्रतिभाति तद्देशव्यवस्थितपुरुषान्तरसंविदि एकेन्दुमण्डलस्य प्रतिभासनात् । ततो ज्ञानाकार एवेन्दुद्वयम् न बाह्यम् । असदेतत्- यतो न बहिरर्थाः संनिधिमात्रेण ज्ञाने प्रतिभासमादधति किन्तु सामग्रीवशात् । अन्यथा अत्वा (न्धा) दिदृशि प्रतिभासमादध्युः । अथ लोचनाद्यभावात् नान्धादिदृशि तत्प्रतिभासः, नन्वेवं तिमि - रादिसामग्र्यभावात् शुद्धदृशि हिमकरद्वयादेरप्रतिभासमानस्व (त्व)म् । 10 अनुपलम्भ या भिन्नकालीन ? वहाँ यदि समानकालीन अनुपलम्भ को बाधक दर्शाया जाय तो वह असिद्ध है क्योंकि रजतादिअर्थप्रतिभास-काल में रजतादि का उपलम्भ ही होता है न कि अनुपलम्भ | यदि भिन्नकालीन अर्थात् अन्यकाल भावी रजतादि का अनुपलम्भ बाधक माना जाय तो वैसा अनुपलम्भ अपने काल में ही रजत का असत्त्व सिद्ध करेगा, पूर्वकालीन रजत के अस्तित्व को बाध नहीं कर सकता। यदि भावि (उत्तर) काल में पूर्वदर्शन लुप्त हो जाता है तो उस से अपने पूर्व दर्शनकालखंड 15 में अर्थ का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि तब तो पूर्व पूर्व सभी दर्शनों के विषयों को तत्तद् दर्शनकाल में असत् मानने का अनिष्ट प्रसङ्ग आयेगा । अब यह अनुमानप्रयोग सरल है स्पष्टदर्शन में प्रतिभासमान होने से बाह्यार्थस्वरूप सत्य है, उदा० अपने संवेदन में भासमान विज्ञानस्वरूप । यहाँ तैमिरिकदर्शन में प्रतिभासमान होने से चन्द्रयुगल भी सत्य सिद्ध होता इस प्रयोग में प्रतिभासमानत्व बाह्यार्थ का स्वभाव ही है जो हेतुतया प्रयुक्त है। असत् पदार्थ कभी प्रतिभासमान नहीं होता । 20 प्रश्न :- चन्द्रयुगल जो तिमिररोगी को भासता है वह यदि सत्य है तो शुद्धदृष्टिवाले को क्यों नहीं भासता ? विशेष :- जहाँ बाह्यार्थ सत्य होता है वहाँ योग्यदेशादि अवस्थान इत्यादि सम्पूर्ण सामग्री बल से निपजनेवाले जनसाधारण के संवेदन में वह नियमतः भासित होता है जैसे नीलादि । तिमिररोगी के अलावा अन्य मनुष्यों के शुद्ध दर्शन में चन्द्रयुगल कहाँ भासता है ? उस देश में रहे हुए अन्य मानवों को तो एक ही चन्द्रमंडल दिखता है। फलित होता है कि चन्द्रयुगल सिर्फ ज्ञानाकार के अलावा 25 और कुछ बाह्यार्थरूप नहीं है । [ शुद्धदर्शन में चन्द्रयुगल न भासने का कारण ] उत्तर :- ज्ञानाकारवादी का यह कथन गलत है । कारण, संनिधानमात्र से बाह्यार्थ, ज्ञान में स्वप्रतिभास आधान कर दे ऐसा नहीं है, किन्तु सामग्री के बल से जरूर करते हैं । विना सामग्री कर दे तो अन्धपुरुष के ज्ञान में भी प्रतिभासाधान कर देंगे। यदि कहें कि नेत्रादि न होने से अन्धपुरुष 30 के ज्ञान में अर्थ प्रतिभास नहीं होता तो प्रस्तुत में भी जान लो कि तिमिररोगादि सामग्रीविरह कारण से शुद्धदृष्टिवाले ज्ञान में चन्द्रयुगल ( तथा रजत) आदि का प्रतिभास नहीं होता । Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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