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________________ ३६४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अथवा कार्यत्वाऽसम्भवस्य सतः प्राक् प्रतिपादितत्वात् असत्कार्यवाद एव चोपादानग्रहणादिनियमस्य युज्यमानत्वात् 'उपादानग्रहणाद्' इत्यादिहेतुचतुष्टयस्य साध्यविपर्ययसाधनाद् विरुद्धता । अथ यदि 'असदेवोत्पद्यते' इति भवतां मतम् तत् कथं सदसतोरुत्पादः सूत्रे प्रतिषिद्धः ? उक्तं च तत्र 'अनुत्पन्नाश्च महामते सर्वधर्माः सदसतोरनुत्पनत्वात्" [लंका० सू० पृ. ८०] इति । न, वस्तूनां पूर्वापरकोटिशून्यक्षणमात्रावस्थायी स्वभाव एव उत्पाद उच्यते भेदान्तरप्रतिक्षेपेण तन्मात्रजिज्ञासायाम्, न पुनर्वैभाषिकपरिकल्पिता जातिः संस्कृतलक्षणा, प्रतिषेत्स्यमानत्वात् तस्याः । नापि वैशेषिकादिपरिकल्पितः सत्तासमवायः स्वकारणसमवायो वा (तयो)रपि निषेत्स्यमानत्वात्, नित्यत्वात् तयोः परमतेन, नित्यस्य च जन्मानुपपत्तेः । उक्तं च, [प्र. वा० २-११५] सत्ता-स्वकारणाश्लेषकरणात् कारणं किल। सा सत्ता स च सम्बन्धो नित्यौ कार्यमथेह किम् ॥ स एवमात्मक उत्पादो नाऽसता तादात्म्येन सम्बध्यते सदसतोर्विरोधात् -न हि असत् सद् भवति । नापि सत्ता पूर्वभाविना सम्बध्यते तस्य पूर्वमसत्त्वात् । कल्पनाबुद्धया तु केवलमसता वस्तु सम्बध्यते । ★ उपादानग्रहणादिहेतुचतुष्क में विरोधापादन* उपादानग्रहण आदि हेतुओं में साध्यद्रोह के उपरांत विरुद्धता दोष भी अवकाशप्राप्त है यह दिखाने के लिये पर्यायवादी कहता है - सत् पदार्थ में कार्यत्व का सम्भव न होने का पहले कह दिया है, उपादानग्रहणादि का नियम भी असत्कार्यवाद में ही घट सकता हैं, इस लिये फलित होता है कि ये उपादानग्रहणादि चार हेतु सत् के कारण की सिद्धि के बदले सत् के करण का अभाव सिद्ध कर रहे हैं, इसलिये चारों हेतु विरुद्ध हेत्वाभास हैं । प्रश्न : यदि आप मानते हैं कि 'असत् ही उत्पन्न होता है' तब लंकावतार सूत्र में सत्-असत् उभय के उत्पाद का निषेध क्यों किया है ? स्पष्ट ही उस सूत्र में कहा है कि - हे महामति ! ये सब धर्म तो अनुत्पन्न ही है, क्योंकि सत् या असत् अनुत्पन्न ही होते हैं। उत्तर : यह जो निषेध किया है वह स्वाभिप्रेत उत्पाद की जिज्ञासा रहने पर उस से अतिरिक्त सत्-असत् के उत्पत्ति प्रकार का अभाव सूचित करने के लिये किया है, स्वाभिप्रेत उत्पत्ति प्रकार ऐसा है - पूर्वकोटि एवं उत्तरकोटि से शून्य अर्थात् सर्वथा पूर्वोत्तरकोटि स्पर्श शून्य जो क्षणमात्रस्थायि वस्तुस्वभाव है वही उत्पत्ति है । वैभाषिक बौद्धवादी ने जैसे संस्कृतस्वरूप जाति (जन्म) की कल्पना कर ली है वैसा 'असत् का उत्पाद' मान्य नहीं है, क्योंकि उस का अग्रिमग्रन्थ में निषेध होने वाला है। तथा वैशेषिक-नैयायिक ने जो सत् की उत्पत्ति मानी है - सत्ता का समवाय अथवा अपने कारणों में कार्य का समवाय यही उत्पत्ति - इस का भी निषेध अभिप्रेत है, क्योंकि उन के मत में समवाय तो नित्य सत् है, नित्य की कभी उत्पत्ति नहीं हो सकती । प्रमाणवार्तिक में कहा है - सत्ता का अथवा अपने कारणों में कार्य का सम्बन्ध जोडने के जरिये वह कारण कहा जाता है किन्तु सत्ता अथवा वह सम्बन्ध (समवायरूप) तो नित्य है वह कैसे कार्य (जन्य) होगा ? ★ उत्पत्ति के पूर्व कार्य सत्-असत् कुछ नहीं ★ पूर्वोत्तरकोटिस्पर्शशून्य क्षणमात्रस्थायिस्वभावस्वरूप जो उत्पाद है उस का असत् के साथ तादात्म्यभाव नहीं हो सकता, क्योंकि सत् और असत् का विरोध होता है । असत् कभी सत् नहीं बन सकता । तथा, वैसा उत्पाद पूर्वकालभावि सत् का सम्बन्धी कभी नहीं हो सकता, क्योंकि वह उत्पाद्य ही पूर्वक्षण में जब नहीं था Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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