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________________ १४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् वनमादिवाक्यानिश्चितबाह्यार्थप्रामाण्याद् युक्तमेव, यथा च तत्र तस्या(?स्य) प्रामाण्यं तथा प्रतिपादयिष्यामः । अत एव “आप्ताऽभिहितत्वाऽसिद्धेरविसंवादकत्वाऽयोगादप्रमाणत्वाऽभावनिश्चयनिमित्ताभावादप्रवतकत्वं प्रयोजनवाक्यस्य प्रेक्षापूर्वकारिणः प्रति" [ ] इति यदुच्यते तदपि प्रतिव्यूढं दृष्टव्यम् । एतेनैव सम्बन्धाभिधानस्यापि सार्थकत्वं प्रतिपादितम् । तत् स्थितमभिधेयप्रयोजनप्रतिपादकत्वं समुदायार्थः ‘समय०' इत्यादिगाथासूत्रस्य । ___ अत्र च 'आगममलारहृदय' इत्यनुवादेन 'समयपरमार्थविस्तरविहाटजनपर्युपासनसको यथा भवति तमर्थमुन्नेष्ये' इति विधिपरा पदघटना कर्त्तव्या। पदार्थस्तु मलमिव आरा-प्राजनकविभागो यस्यासौ मलारो गौर्गली, आगमे तद्वत् कुण्ठं हृदयं यस्य तदर्थप्रतिपत्त्यसामर्थ्यात् - असौ तथा = मन्दधीः, सम्यगीयन्ते परिच्छिद्यन्तेऽनेनार्था इति समय आगमः, तस्य परमोऽकल्पितधासावर्थः समयपरमार्थः, तस्य विस्तरो = रचनाविशेषः - शब्दार्थयोश्च भेदेऽपि का उपन्यास युक्तियुक्त ही है। - पूर्वपक्षीने जो उस का - 'वाक्य अप्रमाण है'.....इत्यादि कह कर खंडन किया है वह ठीक नहीं हैं क्योंकि बाह्यार्थ के विषय में वाक्य का प्रामाण्य सुनिश्चित है। किस तरह वाक्य का प्रामाण्य सुनिश्चित है यह हम आगे दिखायेंगे । उपरोक्त रीति से जब आदिवाक्य की सार्थकता सिद्ध है तब यह जो कहा जाता है कि - "प्रयोजनवाक्य में आप्तकथितत्व सिद्ध नहीं है, अविसंवादिता का योग नहीं है, अप्रामाण्य के अभाव का निश्चायक कोई निमित्त नहीं है, इस लिये बुद्धिपूर्वक कार्य करने वालों के प्रति प्रयोजनवाक्य प्रवर्तक नहीं हो सकता" - यह सब निरस्त हो जाता है ऐसा जान लीजिये । एवं, प्रयोजनवाक्य की सार्थकता के प्रतिपादन से सम्बन्ध और अभिधेय सूचक वाक्य की सार्थकता का भी प्रतिपादन हो जाता है, उस के लिये अलग प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। सारांश, समयपरमत्थ.....इत्यादि दूसरे गाथासूत्र का समुदित अर्थ अभिधेय और प्रयोजन का प्रतिपादन है यह निर्बाध सिद्ध होता है । इस दूसरी गाथा के पदों का अन्वय विधिपरक करना है, वह इस प्रकार है - 'आगममलारहृदय' यह इतना अंश उद्देश्य रूप है, उस का अनुवाद कर के 'जिस रीति से वह समयपरमार्थ विस्तरविहाटजन की पर्युपासनामें सकर्ण हो ऐसे अर्थों का प्रतिपादन मैं करूँगा' ऐसा विधान किया जाता है । यहाँ 'उन्नेष्ये' इस अर्थ में मूलग्रन्थकारने जो 'उनेस्सं' के बदले 'उनेसु' पदप्रयोग किया है वह 'आर्ष' होने से सुयोग्य है । ★ द्वितीयगाथा का पदार्थ ★ ___ उद्देश्य-विधेयवाक्य में प्रयुक्त पदों का अर्थ इस प्रकार है - मलार यानी जिस के लिये आरा यानी घोचपरोणा करने का साधन विशेष [जिस को प्राजनक कहते हैं] मल यानी शिथिल है अथवा दुर्बल रहता है ऐसा गली बैल । आगमकथित अर्थों को ग्रहण करने में असमर्थ होने से जिस का हृदय आगम के विषय में उस 'मलार' के जैसे कुण्ठ यानी जडताधीन रहता है उस कुण्ठबुद्धि अध्येता का यहाँ 'आगममलारहृदय' शब्द से निर्देश किया है । 'समय' यानी सम्यग् प्रकार से अर्थों का जिससे बोध हो ऐसा आगमशास्त्र । परम यानी अकल्पित ऐसा जो अर्थ वह परमार्थ । समय का परमार्थ इस अर्थ में समास हैं समयपरमार्थ । उस का विस्तर यानी रचनाविशेष [अर्थात् उस परमार्थ की पद्धति] यहाँ वि-उपसर्गवाले स्तृ धातु को 'प्रथने वाव शब्दे' (३-३-३३) इस पाणिनिसूत्र www.jainelibrary.org For Personal and Private Use Only Jain Educationa International
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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