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द्वितीयः खण्डः - का० - २
क्षेपेणैव साधनधर्माणामसिद्धिः अपि तु स्वग्राहिज्ञानविकलतया संदिग्धधर्मिसम्बन्धित्वमप्यसिद्धत्वमेव, तस्मात् संदिग्धाऽसिद्धतोद्भावनाय वाक्यप्रयोग इति-
तदप्यनुपपन्नम्, यथा हि सप्रयोजनत्वे संदेहोत्पादने वाक्यस्यानुपयोगित्वम् - शास्त्रमात्रादपि भावात् तथा निष्प्रयोजनत्वेऽपि एवं ह्यनेन वाक्येन हेतोरसिद्धतोद्भाविता भवति यदि तत्सत्तासंदेहनिबन्धनानि कारणान्यपि तदैव प्रकाशितानि भवन्ति । न च विपर्यस्तपुरुषसंदेहोत्पादने तद् वाक्यं प्रभवति, अदर्शनात् । न च प्रस्तुतशास्त्रस्य प्रयोजनवच्छास्त्रान्तरेण कथञ्चित् साम्यात् साधक-बाधकप्रमाणाऽप्रवृत्तितश्चान्यानि संदेहकारणानि सम्भवन्ति, वाक्यमप्येतावन्मात्रप्रकाशनपरं हेतोः संदिग्धाऽसिद्धतामुद्भावयेत्, तच्च तथा तक स्वयमुपलब्ध प्रयोजन विशेष का अन्य को उपलम्भ कराने के लिये आप किसी ठोस उपाय का निदर्शन न करें तब तक अन्य के प्रति आप निष्प्रयोजनत्व हेतु की असिद्धि का उद्भावन कर नहीं सकते । कदाचित् वाक्य को ही उपाय समझ कर आप उसका निदर्शन करे, फिर भी वाक्य तो अप्रमाण है इसलिये निष्प्रयोजनत्व हेतु के विपक्षभूत सप्रयोजनत्व का प्रतिपादन करने में उसकी गुंजाईश ही जब नहीं है तो वाक्य के उपन्यास मात्र से निष्प्रयोजनत्व हेतु की असिद्धि नहीं हो सकती । बिना उपाय ही अन्य को सप्रयोजनत्व का उपलम्भ हो जाय यह तो सम्भव ही नहीं है, सम्भव हो तब तो सारे विश्व का उपलम्भ भी बिना उपाय क्यों न हो जाय ? !
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★ आदिवाक्य संदिग्धासिद्धता दिखाने के लिये ★
अब प्रयोजनवाक्यसफलतावादी कहता है- मान लो कि वाक्य प्रमाणभूत नहीं है इसलिये निष्प्रयोजनत्व के विपरीत सप्रयोजनत्वरूप अर्थ को उपस्थित करने द्वारा निष्प्रयोजनत्व हेतु में असिद्धता का उद्भावन प्रयोजनवाक्य नहीं कर सकता । फिर भी प्रयोजनवाक्य से 'शास्त्र निष्प्रयोजन है' इस बात में संदेह तो पैदा हो सकता है । इस प्रकार जिस शास्त्र में प्रयोजनाभाव ही संदेहग्रस्त है उस शास्त्र में प्रेक्षावानों को प्रवृत्ति का निषेध करने के लिये मानो निश्चित हो इस रूप में प्रयोजनाभाव को हेतुरूप से यदि प्रयोग किया जाय तो वहाँ संदिग्ध असिद्धता को दिखा कर उसका प्रतिक्षेप करना यही हमारा अभिमत है । प्रयोजनसद्भाव का निश्चय पैदा कराना
यह हमारा अभिमत है ही नहीं। ऐसा नहीं है कि सप्रयोजनत्व रूप प्रतिपक्ष का उपक्षेप यानी निश्चय होने पर ही निष्प्रयोजनत्वरूप साधनधर्म यानी हेतु असिद्ध कहा जा सके; तब भी हेतु असिद्ध कहा जा सकता है जब पक्ष में हेतु का ग्राहक कोई प्रमाण न होने से हेतुमतूरूप से पक्ष यानी धर्मी ही संदिग्ध हो जाय तो ऐसे संदिग्धधर्मी के संबन्धीरूप में उपन्यस्त हेतु भी असिद्ध ही गिना जाता है । यहाँ प्रस्तुत में जब प्रयोजनाभाव का निश्चायक कोई प्रमाण ही नहीं है तब प्रयोजनवाक्य का प्रयोग करने से हेतु में संदिग्ध असिद्धता दिखायी जा सकती है ।
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प्रयोजनवाक्यनिष्फलतावादी कहता है कि यह भी घट सके ऐसा नहीं है । पहले ही कह आये हैं। कि वाक्य सप्रयोजनत्व के संदेह को पैदा करने के लिये अनुपयोगी है क्योकिं सिर्फ शास्त्रों से भी सप्रयोजनत्व का संदेह पैदा हो सकता है, ऐसे ही निष्प्रयोजनत्व का संदेह भी सिर्फ शास्त्र से ही हो सकता है फिर वाक्य की क्या जरूर ? हाँ, प्रयोजन के सद्भाव के विषय में संशय के अनेक कारणों की भी प्रयोजनवाक्यप्रयोग के साथ ही उपस्थिति की जाती हो तो उस दशा में प्रयोजनवाक्य से हेतु की असिद्धि का उद्भावन किया
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