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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ स्य ततः स्मृतिहेतुत्वतः उपन्यासेऽन्यस्यापि तद्धेतोः किं नोपन्यासः ? सामान्यविशेषयोश्च दर्शनाऽदर्शनाभ्यां विशेषस्मरणसहकारिभ्यां संशयः, न च प्रयोजनवाक्यं प्रयोजनविशेषस्य भावाऽभावयोः सामान्यम् । अथ विवक्षापरतन्त्रत्वात् स्वार्थतथाभावाऽतथाभावयोरपि प्रयोगसम्भवात् सामान्यमेव वाक्यम्-शास्त्रमपि तर्हि शास्त्रान्तरसादृश्यात् प्रयोजननिवृत्त्युपायत्वाऽनुपायत्वयोः सामान्यम् - अन्यतरनिश्चयनिमित्ताभावात्त तः संशयानः प्रवर्त्तताम् किमकिश्चित्करयोजनवाक्येन ? न च सामान्यस्य विशेषस्य च दर्शनाऽदर्शनाभ्यामेव यथोक्ताभ्यां संशयः किन्तु साधक-बाधक-प्रमाणाऽप्रवृत्तावपि, सा च प्रयोजनवाक्योपन्यासाऽनुपन्यासयोरपि सम्भवत्येव । *प्रयोजन या शास्त्र से विशेषस्मृति ?* यदि कहा जाय कि - "पूर्वकाल में जिसने विशेषप्रयोजन का अनुभव किया है किन्तु वर्तमान में विस्मरण हो गया है ऐसे आदमी को प्रयोजनवाक्य से पुन: उस का स्मरण हो जाने पर प्रयोजनविषयक संशय हो जायेगा - और उस संशय से उसकी शास्त्र में प्रवृत्ति होगी - इस रीति से प्रयोजनवाक्य सार्थक बनेगा" - तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रयोजनवाक्य शास्त्र में न रहने पर भी अन्य किसी चित्रदर्शनादि हेतु से अथवा प्रयोजनवाक्यशून्य शास्त्र से भी विशेषप्रयोजनविषयक स्मृति हो सकती है, फिर प्रयोजनवाक्य तो निरर्थक ही रहा । ऐसा तो कुछ है नहीं कि "प्रयोजनवाक्यशून्य शास्त्र से प्रयोजनस्मरण अवश्यंभावि नहीं है जबकि प्रयोजनवाक्य से वह अवश्य भावि है" । फिर क्या कारण है कि प्रयोजनस्मरण के हेतुरूप में ग्रन्थ में प्रयोजनवाक्य का तो विन्यास किया जाय और चित्रादि अन्य हेतुओ का विन्यास न किया जाय ? संशय की उत्पत्ति उसी दशा में होती है जब कि विषयगत विशेष का दर्शन न होता हो, सामान्यतत्त्व का ही दर्शन हो सकता हो और विशेष का स्मरण सहकारिरूप में उपस्थित हो - जैसे कि स्थाणुत्व या पुरुषत्व रूप विशेष का दर्शन न हो, ऊर्ध्वस्थायितारूप सामान्य का दर्शन हो और स्थाणुत्वादि विशेष का स्मरण हो जाय तब 'यह ढूंठ है या पुरुष' ऐसा संशय पड़ जाता है। प्रस्तुत में प्रयोजनवाक्य यह कोई सामान्यतत्त्वरूप नहीं है जिससे कि प्रयोजन के सद्भाव या अभाव के विषय में संशय का प्रादुर्भाव हो सके । यदि ऐसा कहे कि - शास्त्र में स्वार्थ यानि प्रयोजन का सद्भाव हो या अभाव हो, दोनों स्थिति में प्रयोजनवाक्य के प्रयोग का पूरा पूरा सम्भव है क्योंकि वाक्यप्रयोग वक्ता की इच्छा को अधीन होता है.। इस तरह प्रयोजनवाक्य को ही सामान्यतत्त्वरूप मान कर उसके ज्ञान से प्रयोजन सद्भाव-अभाव के विषय में संशय का उत्थान हो सकेगा। - तो इसके सामने यह भी कह सकते हैं कि शास्त्र भी सप्रयोजन या निष्प्रयोजन अन्यशास्त्र के तुल्य होने से प्रयोजनप्राप्ति का उपायत्व और अनुपायत्व दोनों विशेष के बीच शास्त्र ही सामान्यतत्त्व बन गया, और वहाँ उपायत्व या अनुपायत्व दोनों में से किसी का भी निश्चय करने की सामग्री नहीं है - तो उस दशा में शास्त्ररूप से प्रवृत्ति भी होगी, फिर निरर्थक प्रयोजनवाक्य का उपन्यास करने से क्या फायदा ? दूसरी बात यह है कि विशेष का अदर्शन और सामान्य का दर्शन-इतने मात्र से संशय नहीं पड़ता, किन्तु उस समय किसी एक कोटि के साधक या बाधक प्रमाण की प्रवृत्ति का विरह भी होना चाहिये । अन्यथा उस साधक-बाधक प्रमाण से किसी एक कोटि का होने का या नहीं होने का निश्चय ही प्रवृत्त हो जायेगा । अब चाहे प्रयोजनवाक्य का उपन्यास करे या न करे, तथाविध प्रमाण का यदि विरह रहेगा तो संशय पड जायेगा, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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