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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
२२७ सामग्रीभेदात् दूरासन्नादिभेदेन स्पष्टाऽस्पष्टप्रतिभासादिभेदवत् । एकस्मिन् वृक्षादिस्वलक्षणे स्पष्टेऽस्पशवभासिनोऽपि शाब्दज्ञानस्य काचाभ्रकादिव्यवहितवस्तुप्रतिज्ञानवत् दूरस्थवृक्षादिदर्शनवद् वा न भ्रान्तत्वम् । निदर्शनज्ञानस्यापि भ्रान्तत्वे प्रमाणद्वयानन्तर्भूतस्यास्याज्ञातवस्तुप्रकाश-संवादाभ्यां प्रमाणान्तरभावः स्यात् । न चा "ऽस्पष्टवृक्षादिप्रतिभासस्य
'ममैवं प्रतिभासो यो न संस्थान(वि)वर्जितः । एवमन्यत्र दृष्टत्वादनुमानं तथा सति ॥[ ] इत्येवमनुमानेऽन्तर्भावात् न प्रमाणान्तरत्वम्, अनुमानस्य च स्वप्रतिभासिन्यनर्थेऽर्थाध्यवसायेन प्रवृत्तेर्धान्तत्वम् भ्रान्तस्यापि च तस्य पारम्पर्येण वस्तुप्रतिबन्धात् प्रामाण्यम्" इति वक्तव्यम; निर्विकल्पकज्ञानप्रतिक्षेपप्रस्तावेनाऽस्य विचारयिष्यमाणत्वात् ।
न चाऽसद्भूत-भविष्यतोरपि सामान्यनिबन्धनशब्दप्रवृत्तेः सामान्यस्याऽवस्तुधर्मत्वेनाऽवस्तुत्वम् भूतभविष्यत्कालसम्बन्धितया तयोर्भावात् । न चेदानीं तयोरभावादवस्तुत्वम्, स्वज्ञानकालेऽध्यक्षविषयस्याप्यसम्भवादवस्तुत्वप्रसक्तेः । अथ यदि नामाऽतीताऽनागतयोस्तत्कालसम्बन्धितया भावाद् वस्तुत्वम् तथापि हेतु का सर्वथा अभाव असिद्ध है । यदि ऐसा विपक्षबाधक तर्क किया जाय कि- वस्तु यदि अभिधेय होगी तो शब्दश्रवण होते ही वस्तु का ज्ञान हो जाने से इन्द्रियवर्ग बेकार बन जायेगा, इन्द्रियवर्ग बेकार नहीं है, अत: वस्तु में शब्दाभिधेयत्व का अभाव सिद्ध होता है ।- तो यह गलत तर्क है । वस्तु का शाब्दबोध हो जाने पर इन्द्रियवर्ग बेकार हो जाने का भय बेबुनीयाद है क्योंकि शब्द से वस्तु का अस्पस्टाकार बोध होता है इस लिये स्पष्टाकार बोध के लिये इन्द्रियवर्ग की उपयोगिता निर्बाध रहती है, तब उसके बेकार हो जाने का भय क्यों, जिस से कि वस्तु में अनभिधेयत्व की सिद्धि की जा सके ? यह नहीं कह सकते कि 'एक ही वस्तु का स्पष्ट-अस्पष्ट ऐसे द्विविध प्रतिभास कैसे ?' क्योंकि दूर-समीप के भेद से एक ही वृक्षादि का जैसे स्पष्ट-अस्पष्ट द्विविध अनुभव सर्वविदित है ऐसे ही शब्द और इन्द्रियरूप सामग्री के भेद से स्पष्टास्पष्ट द्विविध प्रतिभास होने में कोई बाध नहीं । 'वृक्षादि यदि स्पष्ट स्वरूपवाला है तो उसमें अस्पष्टावभासी शाब्दबोध को भ्रान्त समझना चाहिये' ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि दीवार आदि एक ही वस्तु काच अथवा अभ्रकादि द्रव्य से आच्छादित होने पर उसका अस्पष्टाभास जो बोध होता है वह भ्रान्त नहीं माना जाता । अथवा दूर रहे हुए आम्रवृक्ष का सिर्फ 'वृक्ष' ('आम्र' ऐसा नहीं) इतना ही अस्पष्टावभासी दर्शन होता है वह भी भ्रान्त नहीं माना जाता । ऐसे ही शाब्दबोध भी भ्रान्त नहीं कहा जा सकता । यदि काचादिआच्छादित वस्तु के ज्ञान को अथवा दूरस्थ वृक्षादि के ज्ञान को भ्रान्त मानेंगे तो उस का प्रत्यक्ष-अनुमान में अन्तर्भाव शक्य न होने से तृतीय प्रमाण की आपत्ति होगी । कारण, भ्रान्त होने से उसे प्रत्यक्षरूप नहीं मान सकते, एवं लिंगजन्य न होने से उस को अनुमान भी नहीं कह सकते । दूसरी ओर, अगृहीतवस्तुग्राही एवं अविसंवादी होने से प्रत्यक्ष या अनुमान की तरह उसको प्रमाण तो मानना पडेगा।
'ममैवं प्रतिभासो०' इस श्लोक का आधार ले कर यदि ऐसा कहा जाय कि- "यह जो मेरा (अस्पष्ट) ऐसा प्रतिभास है वह इस प्रकार के वस्तु-संस्थान से अवर्जित है क्योंकि ऐसा अन्यत्र भी देखा गया है' इस प्रकार के संस्थानविशेष के अनुमान से ही अस्पष्ट वृक्षादि का प्रतिभास होता है- इसलिये उसका अनुमान में अन्तर्भाव योग्य है । अतः तृतीय प्रमाण होने का भय नहीं है । अनुमान स्व में भासमान अनर्थभूत सामान्य
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