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द्वितीयः खण्ड:-का..२
यादपि प्रवृत्तिरुपलभ्यते यथा कृषीबलादीनां कृष्यादावनवगतशस्याऽवाप्तिफलानाम् । अथ अबीजादिविवेकेनावधृतबीजादिभावतया निवितोपायाः तदुपेयस्याऽवाप्त्यनिश्रयेऽपि तत्र तेषां प्रवृत्तियुक्ता न पुनः शास्त्रश्रवणादौ, उपेयप्रयोजनविशेषाऽनिश्चयवत् तदुपायाभिमतादिवाक्यप्रत्याय्योपायनिश्चयस्याप्यसंभवात्। अयुक्तमेतत्-यतो यथा सस्यसम्पत्त्यादौ फले कृषीवलादेः संदेहस्तथा तदुपायाभिमतबीजादावपि, अनिर्वतितकार्यस्य कारणस्य तथाभावनिश्चयाऽयोगात् । तत्र यथा कृष्यादिकं संशय्यमानोपायभावं प्रवृत्तिकारणं तथा शास्त्रमप्यादिवाक्यादनिश्चितोपायभावं किं न प्रवृत्तिकारणमभ्युपगम्येत"- इति चेत् ? असदेतत् - आदिवाक्योपन्यासः शास्त्रप्रयोजन- विषयसंशयोत्पादनार्थम् संशयोऽपि च निश्चयविरुद्धः - अनुत्पन्ने च निचये - तत्राप्रतिबद्धप्रवृत्तिहेतुतया प्रादुर्भवन् केन वार्यते आदिवाक्योपन्यासमन्तरेणापि !!
अथाऽश्रुतप्रयोजनवाक्यानां प्रयोजनसामान्ये तत्सत्त्वेतराभ्यां संशयो जायते - 'किमिदं चिकित्साशाहै या नहीं" ऐसा संशय उत्पन्न होता है और इस संशय से भी शास में प्रवृत्ति होती है, इस रीति से प्रवृत्ति का अंग यानी प्रयोजक होने से आदिवाक्य सार्थक है । देखिये, वस्तु के संशय से भी प्रवृत्ति होती दिखाई देती है, जैसे कि भावि धान्यनिष्पत्ति रूप फल का ठोस निश्चय न होने पर भी उसके संशय से ही कृषिकार लोग कृषि में प्रवृत्त होते हैं । यदि इस के सामने ऐसी शंका करें कि - 'बीजभिन्न पदार्थ को एक ओर रख कर जिसमें बीजस्वभाव का अवधारण हो वही धान्य का उपाय है ऐसा दृढ निश्चय करके ही कृषिकार कृषि में प्रवृत्त होते हैं। भले ही उन लोगों को धान्यप्राप्ति का निश्चय न रहे फिर भी बीजरूप उपाय के निश्चय से उन की कृषि में प्रवृत्ति घट सकती है, जबकि प्रस्तुत में उपेयभूत प्रयोजन का यानी श्रोता को अपने प्रयोजनविशेष का जैसे निश्चय नहीं है, वैसे ही, उस के उपायरूप में यानी श्रोता को उसके प्रयोजन के बोधकरूप में आप को मान्य जो आदिवाक्य है, उस से श्रोता को जो यह निश्चय होना चाहिये कि 'इस शास्त्र का श्रवण मेरे प्रयोजन का उपाय है' ऐसा उपाय का निश्चय भी आदिवाक्य से सम्भवित नहीं है, तो उपाय के निश्चय बिना आदिवाक्य में प्रवृत्ति कैसे होगी ?' - तो यह शंका भी ठीक नहीं है, क्योंकि जब धान्यप्राप्तिरूप फल में संदेह है तो उस के उपायरूप से मान्य बीज में उपायरूपता का निश्चय भी कैसे हो सकता है ? संदेह ही हो सकता है, क्योंकि जब तक कार्योत्पत्ति न दिखाई दे तब तक उसके कारणरूप से अभिमत वस्तु में कारणता का निश्चय हो नहीं सकता । सारांश, कृषि आदि में धान्यप्राप्तिकारणत्व संशयारूढ होने पर भी कृषि आदि स्वविषयक प्रवत्ति में कारण बनते हैं उसी प्रकार आदिवाक्य से उपायत्व का निश्चय न रहने पर भी 'शास्त्र मेरे प्रयोजन का साधक होगा या नहीं होगा' इस प्रकार के आदिवाक्यजन्य संशय से ही शास्त्र स्वश्रवण में कारण होता है - ऐसा हम सार्थकतावादी माने तो क्या गलत हुआ ?
सार्थकतावादी के इस पूरे कथन पर निरर्थकतावादी कहते हैं कि - आदिवाक्य का उपन्यास शास्त्रप्रयोजनरूप विषय के संशय को पैदा करने के लिये किया जाता है, किन्तु संशय जो कि निश्चय से विरुद्ध है, निश्चय जब तक उत्पन्न ही नहीं हुआ तब तक आदिवाक्य के बिना भी उत्पन्न हो सकता है, विरोध के न रहने पर प्रवृत्तिहेतु होनेवाले उसकी उत्पत्ति को कोई भी नहीं रोक सकता, क्योंकि निश्चय अनुत्पन्न होने से संशय की उत्पत्ति निष्कंटक है, फिर आदिवाक्य का उपन्यास करने की भी क्या आवश्यकता है ?
*प्रयोजनविशेषसंशय का उत्पादक आदिवाक्य उपादेय★ अगर सार्थकतावादी कहें - प्रयोजनवाक्य न सुनने पर सामान्य सद्भाव या अभाव के प्रयोजन के विषय
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