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द्वितीयः खण्डः - का० - २
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न हि क्षणस्यापि विकारोऽस्ति अपेक्षणीयात् तस्य विभागाभावात् विभागित्वे वा क्षणस्य न क्षणः स्यात् । न वा विभागिनोऽपि क्षणस्य विकारित्वम्, तथापि क्षणस्य विकारित्वम्, तथाभ्युपगमेऽक्षणिकस्याऽप्यपेक्षणीयकृतो विकारोऽक्षणिकविरोधी न भवेत् । अविकारिणोऽपि क्षणस्य सापेक्षत्वे पराsपेक्षाsविकारिणोऽप्यपेक्षणीयादक्षणिकस्यापि स्यात् । ततश्च कथमक्षणिकस्याऽविकारिणोऽपेक्षणीयात् क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधो भवेत् ? सापेक्षत्वे हि यथाप्रत्ययं क्रम-यौगपद्याभ्यामर्थक्रियाकारित्वमक्षणिकस्य युक्तमेव । अत एव नाऽविच्छेदेन जनकः, सर्वदा सहकारिप्रत्ययसंनिधानाऽयोगात् ।
"केवलस्यैव सामर्थ्ये सहकार्यपेक्षया न किञ्चिदिति केवल एव कार्यं कुर्यात् । असामर्थ्येऽन्यसाहत्येsपि न सामर्थ्यम् अनाधेयातिशयत्वेन पूर्वापरस्वभावपरित्यागोपादानाभावात्, उभयथाऽपि व्यर्थमक्षणिकस्यार्थान्तरापेक्षणमिति चेत् ? क्षणिकेऽपि समानोऽयं प्रसंग: । तथाहि क्षणयोरपि प्रत्येकम
में ही तथास्वभाव के जरिये उत्पत्ति का पूर्वोक्त प्रसंग पुनः आवृत्त होगा, क्योंकि जिन कार्यों की उत्पत्ति अग्रिम क्षणों में अभिप्रेत है उन के उत्पादन का स्वभाव तो उन के पूर्व भी अक्षुण्ण होता है । इन विपदाओं का दोष टालने के लिये यही मानना होगा कि अक्षणिक भाव अर्थक्रिया समर्थ नहीं है ।
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स्याद्वादी : यह बौद्ध-कथन गलत है । क्षणिकवाद में क्षण अविकारी होने पर भी जैसे वहाँ सहकारी की अपेक्षा मान्य है वैसे अक्षणिक को अविकारी मान कर भी उस को सहकारी की अपेक्षा का होना गलत नहीं है । सहकारी की अपेक्षामात्र से क्षणिकवादी क्षण में विकार की सम्भवना नहीं करते हैं, क्योंकि अपेक्षणीय सहकारी का संनिधान, क्षण में विभागप्रयोजक नहीं माना जाता । यदि सहकारी को क्षण में विभागप्रयोजक मानेंगे तो क्षण भी क्षणात्मक नहीं रह पायेगी । यदि कहें कि 'सहकारी की अपेक्षा होने पर क्षण में विभाग होगा तो भी ऐसा होगा जिस से क्षण में कोई विकार नहीं होगा, अतः क्षणिकत्व अक्षुण्ण बना रहेगा ।' ऐसा तो अक्षणिकवादी भी मान सकता है कि अक्षणिक में अपेक्षणीय सहकारी के संनिधान में विकार होगा लेकिन वह ऐसा नहीं कि जिस से अक्षणिकत्व के साथ विरोध हो । अविकारी क्षण भी जब परसापेक्ष माना जाता है तब अविकारी अक्षणिक को भी अपेक्षणीय पर की अपेक्षा होने में कोई बाधक नहीं हैं । इस स्थिति में अविकारी अक्षणिक भाव में अपेक्षणीय सहकारी के संनिधान में क्रम - यौगपद्य से अर्थक्रियाकारित्व मानने में विरोध की गन्ध कहाँ हैं ? जब परापेक्षा होने में कोई दोष नहीं है तब प्रतीति के अनुसार यथासंभव क्रमिक या अक्रमिक अर्थक्रियाकारित्व अक्षणिक में निपट संगत है । उपरांत, क्षण क्षण में स्वजन्य समस्त कार्यों को उत्पन्न करते रहने की आपत्ति भी नहीं है, क्योंकि क्षण क्षण में समस्त कार्यों के लिये सहकारी निमित्तों का संनिधान नहीं होता ।
★ अक्षणिक को अर्थान्तरापेक्ष का विरोध निरर्थक ★
क्षणिकवादी : अक्षणिक भाव स्वयं अकेला यदि समर्थ हो तो वह अकेला ही अपना कार्य निपटायेगा, सहकारी का मुँह देखने की जरूर नहीं रहेगी । यदि स्वयं असमर्थ होगा तो अन्य सहकारी के संनिधान में भी वह समर्थ नहीं हो पायेगा, क्योंकि अक्षणिकभाव में सहकारिसंनिधान से अतिशय की उत्पत्ति मानेंगे तो अतिशय के भेदाभेदपक्ष की आपत्तियाँ होने के भय से, अक्षणिकभाव को अनाधेयातिशय (जिस में अब किसी नये संस्कार की मुद्रा नहीं लग सकती ऐसा ) मानेंगे, तो वह सतत एक स्वभाव ही रहेगा । तात्पर्य, सहकारी
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