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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ २११ क्षणिकस्य, अक्षणिकस्यापि क्रमवत्सहकार्यपेक्षयाऽक्रमस्यापि क्रमकारित्वं किं नेष्यते ? 'स्वतोऽक्षणिकस्याक्रमत्वेऽक्रमेणैव किं कार्योत्पत्तिः अनाधेयातिशयस्याऽक्षणिकस्य कालान्तरसहकारिप्रतीक्षाऽयोगादिति ?' न, अक्षणिकस्याऽनाधेयातिशयस्याऽपि कार्यकारित्वस्य कालान्तरनियतत्वात् क्षणिकस्येव, सहकारित्वस्य चैककार्यकारित्वलक्षणत्वाद् युक्ता सहकारिप्रत्ययापेक्षाऽक्षणिकस्य ! क्षणिकस्यापि ह्यनतिशयत्वाद् सहकारिणि कालान्तरे वा नातिशयाधायकत्वेनापेक्षा - क्षणस्याऽविवेकात् - किन्तु कालान्तरभाव्येककार्यकारित्वेन, सहकारिसहायस्यैव च सामर्थ्यात्, अन्यथा सामग्री न ज्ज(?ज)निका स्यात् एकस्मादेव कार्योत्पत्तेः द्वितीयक्षणापेक्षा च न स्यात्, आयक्षण एव कार्यस्योत्पत्तेः ।। ___ परस्परोपकारित्वं च सन्ताने एककार्यकारित्वमेव, क्षणात् सहकारिणः क्षणस्यापि कारिणोऽनुपकारात् सर्वत्रैकार्थकारित्वमेव सहकारित्वम्, अतोऽनुपकारिण्यपि सहकारिणि कालान्तरे वाऽपेक्षासम्भवात् क्रमवत्सहकार्यपेक्षयाऽक्रमस्यापि क्रमकारित्वं कि न भवेत् ? न चानेकस्मात् क्रमेणानेककार्योत्पतौ क्रमकारित्वं दो पदार्थ में कथंचिद् भेदाभेद होने में कोई विरोध सावकाश नहीं है, क्योंकि उपरोक्त तरीके से वे दोनों निर्बाधप्रतीति के विषय बनते हैं । बौद्धमत में भी ऐसा होता है - एक ही बीज क्षण अंकूरस्वरूप अपने कार्य को उत्पन्न करती है वही बीज क्षण घटादि परकार्य को उत्पन्न नहीं करती है इस प्रकार कारकत्व-अकारकत्व विरोधाभासी धर्म एक ही क्षण में रहते हैं । यदि ऐसा कहें कि - 'स्वकार्यकारकत्व ही परकार्य-अकारकत्व है यानी दोनों एक ही है अत: कोई विरोधाभास नहीं है' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि पहले ही कह दिया है कि [अक्षणिक में भी एक बार अन्यकार्यकारकत्व होता है दोनों एक होने से अक्षणिकवाद में विरोध का आपादन छोड देना पड़ेगा अथवा]' एक ही क्षण में उपादानभाव और सहकारीभाव को एक मानेंगे तो दोनों मे से एक ही रहेगा, दोनों नहीं हो सकेंगे'......इत्यादि । इस प्रकार भिन्नाभिन्न शक्तिविशेष जो सिद्ध है उस से कार्यभेद मानना है, किन्तु निरंश वस्तु में शक्तिभेद निरंश मानने के कारण उस में अंशत: उपादानशक्ति और अंशत: सहकारि शक्ति का अवस्थान संगत नहीं होता । फलस्वरूप, जो क्षणिक पदार्थ है वह शक्तिभेद से एक साथ अक्रम से अपने सब कार्यों को जन्म दे, यह सम्भव नहीं। *क्षणिकभाव में क्रमिककार्यकारिता दुर्घट★ क्षणिक भाव में क्रमश: कार्यकारित्व भी घट नहीं सकता, क्योंकि क्रम के लिये कम से कम दो क्षण में एक भाव का अवस्थान होना चाहिये, क्षणिक भाव तो दूसरे क्षण में रहता नहीं । क्रमकारित्व का मतलब है एक के बाद एक, ऐसे अनेक क्षणकाल में होने वाले कार्यों को जन्म देना, लेकिन जो एकक्षणमात्रस्थायि है वह अन्य अन्य क्षण में कैसे कार्य करेगा ? यदि यह कहा जाय - क्षणिक भाव स्वत: क्रम रहित होने पर भी उस के द्वारा अपने अभाव में भी द्वितीयादि क्रमिक क्षणों में कार्य को उत्पन्न करने में कोई बाध नहीं है, क्योंकि उत्पन तो कार्य को होना है, और उस को तत्तत्क्षण में उत्पन्न होने के लिये तत्तत् क्षणों की अपेक्षा है । इस लिये क्रमिक कार्योत्पत्ति हो सकती है । - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसे तो अक्षणिक भाव भले स्वयं क्रमरहित हो, फिर भी क्रमिक सहकारीयों की अपेक्षा होने से क्रमिक कार्यों को निपटा सकता है। - 'जो स्वयं अक्रमिक है ऐसा अक्षणिक भाव अक्रम से या एकसाथ ही अपने कार्यों को क्यों नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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