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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् स्यादेतत् - यद्यपि नीलोत्पलशब्दयोरेकस्मिन्नर्थे वृत्तिर्नास्ति तदर्थयोस्तु (जाति ?)गुणजात्योरेकस्मिन् द्रव्ये वृत्तिरस्तीत्यतोऽर्थद्वारकमनयोः सामानाधिकरण्यं भविष्यति । तदेतदयुक्तम् अतिप्रसंगात् । एवं हि रूप-रसशब्दयोरपि सामानाधिकरण्यं स्यात् तदर्थयो रूपरसयोरेकस्मिन् पृथिव्यादिद्रव्ये वृत्तेः । किंच, तर्हि 'नीलोत्पलम्' इत्येकार्थविषया बुद्धिर्न प्राप्नोति एकद्रव्यसमवेतयोर्गुण-जात्योभ्यां पृथक् पृथगभिधानात् । न चैकार्थविषयज्ञानानुत्पादे शब्दयोः सामानाधिकरण्यमस्तीत्यलमतिप्रसंगेन । अथापि स्यात् यदेव नीलगुण-तज्जातिभ्यां सम्बद्धं वस्तु न तदेवोत्पलशब्देनोच्यते, तेनोत्पलश्रुतिळा न भविष्यति । नन्वेवं भिन्नगुणजात्याश्रयद्रव्यप्रतिपादकत्वानीलोत्पलशब्दयोः कुतः सामानाधिकरण्यम् ? अथ यद्यपि द्रव्यं नीलशब्देनोच्यते उत्पलशब्देनापि तदेव, तथापि नीलशब्दो नोत्पलजातिसम्बन्धिरूपेण द्रव्यमभिधत्ते, किं तर्हि ! नीलगुण-तज्जाति सम्बन्धिरूपेणैव, तेनोत्पलत्वजातिसम्बन्धिरूपत्वमस्याभिधातुमुत्पलश्रुतिः प्रवर्त्तमाना ना(ना)नर्थिका भविष्यति । असदेतत् - न हि नीलगुण-तज्जातिसम्बन्धिरूपत्वादन्यदेवोको 'कमल' का निश्चय नहीं होता (संशय होता है)। आप यह सोचिये कि शब्द से जिस अर्थ में संशय उत्पन्न होगा वह कभी शब्दार्थ नहीं माना जा सकता, क्योंकि संशयारूढ अर्थ को यदि शब्दार्थ मानेंगे तो 'अश्व' शब्द से शेर का संशय उत्पन्न होने पर शेर को भी अश्व शब्द का वाच्यार्थ मानना पडेगा - यह अतिप्रसंग दोष होगा। दूसरी बात यह है कि अगर नील शब्द से किसी द्रव्य का निश्चय होना मानेंगे तो निश्चयविषयीकृत द्रव्य के बारे में संशयोत्पत्ति को अवकाश ही नहीं रहेगा क्योंकि निश्चयचित्त और आरोपात्मक (संशयात्मक) चित्त ये दोनों आपस में बाध्य-बाधक हैं । अर्थात् निश्चय बाधक है, आरोप (संशय) बाध्य है ।
★वाच्यार्थों का सामानाधिकरण्य अनुपयोगि★ यदि यह कहा जाय कि - "नील और कमल शब्द यद्यपि एक अर्थ में वृत्ति (यानी स्ववाच्यत्वरूप सम्बन्ध से एकार्थवृत्तित्व) नहीं है फिर भी उन के वाच्यार्थ क्रमश: नीलगुण और कमलत्व जाति ये दोनों एक ही कमलद्रव्य में रहते हैं, अत: वाच्यार्थ समानाधिकरण होने से उन के द्वारा वाचक शब्दो में सामानाधिकरण्य हो सकता है" - तो यह बात गलत है। कारण, रूप एवं रस ये दो वाच्यार्थ भी एक द्रव्य में रहने वाले हैं अत: उन के द्वारा वाचक रूप-रस शब्दों में भी सामानाधिकरण्य मानना पडेगा । फलत: नीलकमल की तरह 'रूप-रस' ऐसा अनिष्ट कर्मधारय समास आ पडेगा ।
दूसरी बात यह है कि नील एवं कमल शब्दों के द्वारा एकद्रव्य में समवेत गुण-और जाति का पृथक् पृथक् प्रतिपादन मानेंगे तब 'नील-कमल' एक सामासिक शब्द से जो एकार्थविषयकअनुभव होता है वह कभी नहीं होगा । तथा जब तक एकार्थानुभव नहीं होगा तब तक उन शब्दों में सामानाधिकरण्य की भी उपपत्ति नहीं हो सकेगी । अधिक दोषों की बात जाने दो । ___'कमल' शब्द की सार्थकता घटाने के लिये यदि ऐसा कहें कि - "नीलगुण या नीलत्व जाति से सम्बद्ध जो वस्तु है वही कमलशब्द का वाच्य है ऐसा हम नहीं मानते जिस से कि कमलशब्द निरर्थक हो जाय ! (कमलशब्द से हम कमलत्वजातिसम्बन्धि वस्तु का प्रतिपादन मानते हैं)" - तो यह भी ठीक नहीं है । कारण 'नील' शब्द कमलशब्दवाच्य कमलत्वजातिमद से भिन्न ही नीलगण या नीलत्वजाति के
दव्य का प्रतिपादक होने से यहाँ सामानाधिकरण्य की गन्ध भी कहाँ ? यदि कहें कि - "कमल शब्द से उसी द्रव्य
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