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________________ सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ किं च, कि विज्ञानस्य A स्वरूपं बाध्यते, B आहोस्वित्प्रमेयम् उतार्थक्रिया ? इति विकल्पत्रयम् । A तत्र यदि विज्ञानस्य स्वरूपं बाध्यते इति पक्षः, स न युक्तः, विकल्पद्वयाऽनतिवृत्तेः । तथाहिविज्ञानं बाध्यमानं किं A1 स्वसत्ताकाले बाध्यते उत A2 उत्तरकालम् ? तत्र यदि A1 स्वसत्ताकाले बाध्यते इति पक्षः, स न युक्तः, तदा विज्ञानस्य परिस्फुटरूपेण प्रतिभासनात् । न च विज्ञानस्य परिस्फुटप्रतिभासिनोऽभावस्तदेवेति वक्तु ं शक्यम्, सत्याभिमतविज्ञानस्याप्यभावप्रसङ्गात् । A2 अथोत्तरकालं बाध्यत इति पक्षः, सोऽपि न युक्तः, उत्तरकालं तस्य स्वत एव नाशाभ्युपगमाद् न तत्र बाधकव्यापारः सफल:, 'दैवरक्ताः हि किंशुकाः । ५४ पूर्वज्ञान अपने अर्थयथावस्थितज्ञान स्वरूप कार्य में इस विशेष के सहकार से ही प्रवृत्त हुआ और इसके द्वारा अपने में प्रामाण्य का साधक हुआ- ऐसी दशा में उसमें स्वतः प्रामाण्य कहाँ रहा ? 1 [ पर्युदासनञ् से बाधाभावात्मक संवाद अपेक्षा की सिद्धि ] ( अपि च बाधा० .... ) अपरंच, इस प्रकार भी स्वतः प्रामाण्य सिद्ध नहीं हो सकता है - पूर्व विज्ञान अपने यथावस्थित अर्थप्रकाशनरूप कार्य में जिस बाधाभाव से प्रवर्त्तनान आपको अभिप्रेत है। वह बाधाभाव तो पर्युदासप्रतिपेध का ग्रहण करने से संवादरूप ही है, क्योंकि बाधाभाव में प्रसज्य प्रतिषेध लेने से तो मात्र 'सत्तानिषेध' यानी 'बाध का न होना' ही सिद्ध होता है जब कि पर्युदास प्रतिषेध लेने पर बाधाभाव को भावात्मक संवादरूप से गृहीत किया जा सकता है । तो जब यह कहते हैं कि ज्ञान बाधारहित होने पर जो अपने सत्यार्थप्रकाशन- कार्य में प्रवृत्त होता है वह किसी की अपेक्षा विना ही अर्थात् स्वत: ही प्रवृत्त हुआ वह आपका कहना अयुक्त है क्योंकि इसका अर्थ तो यही हुआ कि वह स्वकीय अर्थक्रिया के लिये बाधाभाव के रूप में संवाद पर ही आधार रखता है । तब तो आपने संवादापेक्ष यानी परापेक्ष ही अर्थक्रियाकारित्व यानी परतः प्रामाण्य ही मान लिया । [ बाध किसका ? स्वरूप, प्रमेय या अर्थक्रिया का ? ] यह भी ज्ञातव्य है कि आप बाधविरहात्मक स्वरूपविशेष से ज्ञान की अपने कार्य में स्वतः प्रवृत्ति मानते हैं - उसमें तीन विकल्प हैं - बाधाभाव किस लिये अपेक्षित है ? क्या बाध रहे तो A. विज्ञान का स्वरूप बाधित हो जाता है ? या B. विज्ञान का प्रमेय बाधित होता है ? अथवा C. विज्ञान की अर्थक्रिया बाधित होती है ? ( १ ) अगर बाघ से विज्ञान का स्वरूप बाधित होता है यह प्रथम पक्ष अंगीकार करें तो यह उचित नहीं है- क्योंकि इसमें दो विकल्प इस प्रकार अनिवार्य हैं - A1 बाध से बाधित होता हुआ विज्ञान क्या अपने सत्ताकाल में बाधित होता है ? A2 या अपने उत्तरकाल में बाधित होता है ? A1 प्रथम विकल्प ग्राह्य नहीं हो सकता, क्योंकि विज्ञान अपने सत्ताकाल में तो स्पष्टरूप से संवेदित होता है, वास्ते जिस काल में विज्ञान का स्पष्टरूप से संवेदन हो रहा है उसी काल में बहाँ बाघ से बाध्य है - ऐसा नहीं कह सकते । तात्पर्य स्पष्टरूप से भासमान संवेदन का उसी काल में इनकार नहीं किया जा सकता । क्योंकि ऐसा इनकार करने में भले इससे असद् विज्ञान का अभाव यानी असिद्धि हो किन्तु सत्यविज्ञान के भी अभाव की आपत्ति सिर पर आ गिरेगी । A2 (अथोत्तरकालं .... ) अगर आप कहें- संभावित बाधक से विज्ञान का स्वरूप अपने उत्तरकाल में बाधित होता है, तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि सर्वक्षणिकवाद में विज्ञान उत्तरकाल में स्वतः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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