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प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद
कि च, नार्थपरिच्छे इमात्रं प्रमाणकार्यम् , अप्रमाणेऽपि तस्य भावात् । कि तहि ? अर्थतथात्वपरिच्छेदः । स च न ज्ञानस्वरूपकार्यः, भ्रान्तज्ञानेऽपि स्वरूपस्य भावात् तत्रापि सम्यगर्थपरिच्छेदः स्यात् । अथ स्वरूपविशेषकार्यों यथावस्थितार्थपरिच्छेद इति नातिप्रसंगः, तहि स स्वरूपविशेषो वक्तव्यः, कि (१) अपूर्वार्थविज्ञानत्वम् , उत (२) निश्चितत्वम् , पाहोस्विद् (३) बाधारहितत्वम् , उतस्विद् (४) अदुष्टकारणारब्धत्वं, कि वा (५) संवादित्वमिति ?
तत्र (१) यद्यपूर्वार्थविज्ञानत्वं विशेषः, स न युक्तः, ॐ तमिरिकज्ञानेऽपि तस्य भावात (२) अथ निश्चितत्वं, सोऽप्ययुक्तः, परोक्षज्ञानवादिनो भवतोऽभिप्रायेणाऽसंभवात् । (३) अथ बाधरहितत्वं विशेषः सोऽपि न युक्तः । यतो बाधाविरहस्तत्कालभावी A विशेषः उत्तरकालभावी B वा? न A तावत्तत्कालभावी, मिथ्याज्ञानेऽपि तत्कालभाविनो बाधाविरहस्य भावात् । B अथोत्तर
इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य है कि प्रमाण का कार्य केवल अर्थ का ज्ञान नहीं, क्योंकि अर्थज्ञान तो अप्रमाण से भी होता है। तो प्रमाण का कार्य क्या है ? इसका उत्तर यह है कि अर्थतथात्वपरिच्छेद अर्थात् अर्थ के सत्य स्वरूप का प्रकाशन । अगर यह कार्य ज्ञान के स्वरूपमात्र से हो जाता तब तो ज्ञान का स्वरूप भ्रान्तज्ञान में भी होने से उससे भी वस्तु के सत्य स्वरूप का प्रकाशन हो जाना चाहिये।
[ अर्थतथात्व का परिच्छेदक ज्ञानस्वरूपविशेष के ऊपर चार विकल्प ]
अगर कहा जाय-'ज्ञान के सामान्य स्वरूप से नहीं किन्तु स्वरूपविशेष से अर्थ के यथास्थित रूप का प्रकाशन होता है, यह स्वरूपविशेष भ्रम ज्ञान में न रहने से उसमें सत्यस्वरूपप्रकाशकत्व का अतिप्रसंग नहीं होगा।' तब यह बताईये, यह स्वरूपविशेष क्या है ? प्रमाण का वह स्वरूप विशेष (१) क्या अपूर्वअर्थविज्ञानत्व है ? (२) अथवा निश्चितत्व है (३) या बाधरहितत्व है (४) किं वा दोषरहितकारणजन्यत्व है (५) या संवादित्व है ?
[ज्ञान का स्वरूपविशेष अपूर्वार्थविज्ञानत्व नहीं है ] इसमें में से यदि (१) अपूर्वार्थविज्ञानत्व को विज्ञान का स्वरूप विशेष कहते हैं तो वह अयुक्त है क्योंकि तिमिर दोषयुक्त नेत्र वाले पुरुष के ज्ञान में भी ऐसा अपूर्वार्थज्ञानत्वात्मक स्वरूपविशेष विद्यमान है किन्तु वहां सम्यग् अर्थपरिच्छेदकत्व नहीं है। (२) अगर निश्चितत्व को विज्ञान का स्वरूप विशेष कहते हैं तो यह भी अयुक्त है क्योंकि परोक्षजानवादी मीमांसक ज्ञान को ज्ञाततालिंगक अनुमान से ग्राह्य मानते हैं इसलिये उनके अभिप्राय से ज्ञान मात्र परोक्ष होने से किसी भी ज्ञान में स्वतोनिश्चितत्व होने का संभव ही नहीं है ।।
[ ज्ञान का स्वरूपविशेष बाधविरह भी नहीं है ] (३) अगर बाधारहितत्व को विज्ञान का स्वरूप विशेष कहते हैं तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञान में बाधारहितत्व यह A तत्कालभावी यानी स्व (विज्ञान)समानकालभावी बाधाविरद्धरूप है या B उत्तरकालभावी यानी विज्ञानोत्तरकालभावी बाधाविरह रूप है ? A स्वकालभावी बाधा
तिमिराख्यः स वै दोषश्चतुर्थपटलं गतः । रुणद्धि सर्वतो दृष्टि लिंगनाशमतः परम् ।। इति माधवकरः ।
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