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सम्मतिप्रकरण-काण्ड १
यदपि 'एतच्च नैव सत्कार्यदर्शनसमाश्रयणादभिधीयते' [ पृ० १६-३ ] इत्यादि 'तदपेक्षा न विद्यते' [ पृ० १६-११ ] इतिपर्यन्तमभिहितम् , तदपि प्रलापमात्रम् , यतोऽनेन न्यायेनाऽप्रामाण्यमपि प्रामाण्यवत् स्वत एवं स्यात् । तदपि ही विपरीतार्थपरिच्छेदशक्तिलक्षणं न तिमिरादिदोषसङ्गतिमत्सु लोचनादिषु अस्तीति । अपि च, ज्ञानरूपतामात्मन्यसतीमाविर्भावयन्तीन्द्रियादयो न पुनर्यथावस्थितार्थपरिच्छेदशक्तिमिति न किचिनिमित्तमुत्पश्यामः ।
कुतश्चैतदैश्वर्य शक्तिभिः प्राप्तं यत इमाः स्वत एवोदयं प्रत्यासादितमहात्म्या न पुनस्तदाधाराभिमता भावविशेषा इति ? न च तास्तेभ्यः प्राप्तव्यतिरेकाः यतः स्वाधाराभिमतभावकारणेभ्यो भावस्योत्पत्तावपि न तेभ्य एवोत्पत्तिमनुभवेयुः । व्यतिरेके स्वाश्रयस्ततोऽभवन्त्यो न सम्बन्धमाप्नुयुः, भिन्नानां कार्य-कारणभावव्यतिरेकेणापरस्य सम्बन्धस्याभावात् , आश्रयायिसम्बन्धस्यापि जन्यजनकभावाभावेऽतिप्रसंगतो निषेत्स्यमानत्वात् । धर्मत्वाच्छक्तेराश्रय इत्यप्ययुक्तम् , असति पारतन्त्र्ये परमार्थतस्तदयोगात । पारतन्त्र्यमपि न सतः, सर्व निराशंसत्वात् , असतोऽपि व्योमकुसुमस्येव न, तत्वादेव । अनिमित्ताश्च न देश-कालद्रव्यनियमं प्रतिपद्यरन् । तद्धि किचित् क्वचिदुपलीयेत नवा यद् यत्र कश्विद् आयत्तमनायत्त वा । सर्वप्रतिबन्धविवेकिन्यश्चेच्छक्तयो, नेमाः कस्यचित् कदाचिद् विरमेयुरिति प्रतिनियतशक्तियोगिता भावानां प्रमाणप्रमिता न स्यात्।।
सामग्री से विज्ञान उत्पन्न होता है उसी सामग्री से प्रामाण्य भी उत्पन्न होता है, अतः प्रामाण्य उत्पत्ति में स्वतः है' इत्यादि जो कहा था वह अब अयुक्त सिद्ध होता है। (अर्थतथात्वपरिच्छेद.... ) इसी प्रकार आपने जो कहा था कि "वस्तु की यथार्थता के ज्ञान रूप जो शक्ति है वही प्रामाण्य है और सब भावों की शक्तियां स्वत: ही होती है इसलिये भी प्रामाण्य स्वतः है" यह कथन भी युक्त नहीं है क्योंकि यदि इस प्रकार कहा जाय तो अयथार्थरूप से अर्थ के प्रकाशन की शक्ति जिसको अप्रामाण्य कहा जाता है, उसके भी असत होने पर उसको कोई उत्पन्न नहीं कर सकेगा इसलिये वह भी स्वतः होनी चाहिये।
[ अप्रामाण्यात्मक शक्ति में भी स्वतोभाव आपत्ति ] आपने जो “सत्कार्यवाद को मानकर यह हम नहीं कहते...." यहां से लेकर (जलाहरणादि में घट को ) उसकी यानी दंड की अपेक्षा नहीं है'....यहां तक कहा था वह भी केवल प्रलाप है-अर्थहीन वचन है, क्योंकि यदि आपकी इस यक्ति को माना जाय तब अप्रामाण्य भी प्रामाण्य के समान स्वतः ही हो जाना चाहिये क्योंकि विज्ञान निष्ठ अर्थतथाभावपरिच्छेदशक्तिरूप प्रामाण्य जैसे ज्ञानोत्पत्ति के पूर्व नेत्रादि कारणों में विद्यमान नहीं है वैसे ही विपरीतार्थपरिच्छेदशक्तिरूप अप्रामाण्य भी तिमिर आदि दोषयुक्त नेत्रादि कारणों में ज्ञानोत्पत्ति के पूर्व विद्यमान नहीं है इसलिये उसको भी स्वतः मानना पड़ेगा । इसके अतिरिक्त, 'इन्द्रिय आदि अपने भीतर में अविद्यमान ज्ञानरूपता को उत्पन्न करते हैं परन्त अर्थ नथाभावपरिच्छेदशक्तिरूप प्रामाण्य को उत्पन्न नहीं करते.' इस पक्षपात में कोई निमित्त नहीं दिखाई देता।
[शक्तियां स्वतः उत्पन्न नहीं हो सकती ] यह भी विचारणीय है कि उपर्युक्त स्थिति में शक्तियों ने यह ऐश्वर्य कहां से प्राप्त कर लिया जिससे ये शक्तियां तो स्वतः-अपने आप उत्पन्न होने की महीमावाली है और उनके आधारभूत
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