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प्रथमखण्ड-का० १. मुक्तिस्वरूपमीमांसा
नाप्यन्यस्य व्यावृत्तिः, स्वलक्षरणगतायाः प्रत्येकपरिसमाप्ताया: परिणामसामान्यादभिन्नत्वात् व्यावृत्तेः। तदाश्रयान्याने कव्यक्तिसाधारणी बुद्धिपरिकल्पिता S.ज्जातीयव्यावृत्ति: सामान्यमिष्यते, तस्मिंश्चाऽवस्तुभूते शब्दप्रतिपादिते तथाविधे सामान्येऽस्वलक्षणविवक्षितेऽर्थक्रियाथिनां स्वलक्षणे वृत्तिर. परिकल्पितरूपे कथं स्यात् ? दृश्य-विकल्प (प्य ) योरेकीकरणेन प्रवृत्तौ गोबुद्धयाऽप्यश्वे प्रवत्तेत । न च विकल्पितस्य सामान्यस्याऽवस्तुभूततया केनचिद दृश्येन सारूप्यमस्ति, सद्भावे वा सारूप्यस्य कि दृश्यविकल्प्यकीकरणवाचोयुक्त्या? तदेव दृश्यं सामान्यज्ञाने प्रतिभासते, तत्प्रतिभासाच्च तत्रैव वत्तिरिति कि न स्फूटमेवाऽभिधीयते अवस्त्वाकारस्य वस्तुना सारूप्याऽसम्भवात् ?
के लिये सज्ज हैं ( अर्थात् उसके लिये कोई अपर सम्बन्ध नहीं मानना है ) तो फिर सामान्यादि को भी स्वतः सम्बद्ध मान लिजीये, दोनों स्थल में क्या विशेष फर्क है ?
___ तथा, दो वस्तु के होने पर 'यह सत् है और यह सत् है, ऐसी समुच्चयात्मक प्रतीति अनुभव में आती है, किन्तु 'यही यह है' ऐसी प्रतीति होने का अनुभव नहीं है। तथा सम्भवतः सामान्य जितनी अनेक व्यक्ति में आधेय रूप से रहा है उन में से किसी एक व्यक्ति में उसका ग्रहण होने पर भी उसके जितने आश्रय हैं उन सभी का ग्रहण न हो सकने से तत्तद्व्यक्तिनिष्ठसामान्य का ग्रहण न होने पर सामान्य का संपूर्ण ग्रहण तो कभी होगा ही नहीं। यदि सामान्य में तत्तद्व्यक्ति-आधे यरूपता का ही सम्भव मानेंगे तो जैसे तत्तव्यक्तिगतरूपादि सिर्फ़ तत्तद् व्यक्ति के ही आधेय होने से तत्तद् व्यक्ति में ही पर्याप्तरूप से रहते हैं उसी तरह सामान्य भी तन्मात्ररूप यानी तत्तद्व्यक्तिमात्रपर्याप्त हो जाने की आपत्ति होगी। इससे यह फलित होना है कि-सामान्य के जितने आश्रय हैं उन सभी में सामान्य को व्यापक मानने वाला मत परिणामसामान्यवाद से अतिरिक्त नहीं हो सकता । तात्पर्य, वस्तुओं का समान परिणाम यही सामान्य है ऐसा माने तभी सर्वगतत्व संगत हो सकता है, क्योंकि समानाकार परिणामरूप सामान्य ही प्रत्येक आश्रयव्यक्ति में पर्याप्त होकर रह सकता है । तथा यह दिखता है कि द्रव्यादि में पदार्थत्वादि सामान्य का सम्बन्ध न होने पर भो ‘यह पदार्थ है-यह पदार्थ है' ऐसी अनुगत प्रतीति होती है।
[व्यावृत्ति सर्वथा भिन्न या असत् नहीं है ] अन्य पदार्थ की व्यावृत्ति भी घटादिविशेष से सर्वथा भिन्न नहीं है, क्योंकि प्रत्येक में व्याप्त स्थलक्षणगत व्यावृत्ति यह परिणामसामान्यरूप ही है उससे भिन्न नहीं है । परिणामसामान्य के आश्रयभूत अन्य अन्य अनेक व्यक्तिओं में साधारण और बुद्धि से कल्पित जो अतज्जातीयव्यावृत्ति (अघटजातीयव्यावृत्ति =घटत्व) यही सामान्य कहा जाता है । बौद्ध वादी सामान्य को वस्तुभूत नहीं मानते हैं (काल्पनिक मानते हैं) किन्तु यदि उसको वस्तुभूत नहीं मानेगे तो अवस्तुभूत सामान्य का शब्द से प्रतिपादन किये जाने पर स्वलक्षण की तो विवक्षा ही नहीं है फिर अर्थक्रिया के चाहकों की अकल्पितरूप वाले (यानी वास्तविक ) स्वलक्षण पदार्थ में प्रवृत्ति होती है वह कैसे होगी ? आशय यह है कि शब्द का प्रतिपाद्य सामान्य तो बौद्धमत में असत् है अत: उसमें तो प्रवत्ति हो नहीं सकतो । जो म्वलक्षणरूप वास्तविक पदार्थ है वह तो बौद्धमत में शब्द का प्रतिपाद्य ही नहीं है तो उस में भी प्रति नहीं होगी-इसतरह प्रवृत्ति का ही उच्छेद हो जायेगा । यदि कहें कि दृश्य (स्वलक्षण पदाथ) और विकल्प्य ( शब्दजन्य विकल्प का विषयभूत सामान्य पदार्थ) दोनों के 'एकीकरण' के कारण यानी
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