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________________ ६४६ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ समवायमपि च ताप्यमेव समवायिनो: पश्यामः, अन्यथा तस्याप्याश्रिततया सम्बन्धान्तर. कल्पनाप्रसंगात तत्र चानवस्थायाः प्रदशितत्वात् । विशेषण-विशेष्यभावसम्बन्धेऽप्यपरतत्कल्पनेऽनवस्था। समवायात् तत्सम्बन्धकल्पने इतरेतराश्रयत्वम् । प्रनाश्रितस्य तत्सम्बन्धत्वेऽप्यतिप्रसंगः। तस्य स्वतः सम्बन्धे वा सामान्यस्यापि तथाऽस्तु विशेषाभावात् । सति च वस्तुद्वये सन्निहिते 'इदं सदिदं च सत्' इति समुच्चयात्मकः प्रत्ययोऽनुभूयते, न पुन: 'इदमेवेदम्' इति, सम्भवद्विवक्षितक (? तानेक)व्यक्त्याधेयरूपस्य च सामान्यस्याशेषाश्रयग्रहणाऽसम्भवान्न कदाचनापि तस्य सम्पूर्णस्य ग्रहणं स्यात् । तव्यक्त्यनाधेयरूपाऽसम्भवे तद्गतरूपादिवत तन्मात्रमेव स्यात् । स्वाश्रयसर्वगतसामान्यवादस्तु परिणामसामान्यवादान्न विशिष्यते, प्रत्याश्रयं परिसमाप्तत्वस्यान्यथानुपपत्त्या सामान्यसम्बन्धशून्येष्वपि द्रव्यादिषु पदार्थादिप्रत्ययाद्यन्वयदर्शनाच्च । इस स्थिति में घटत्वादि जाति पटादिव्यक्ति को छोडकर सिर्फ घटादि व्यक्तिओं के साथ ही सम्बन्ध रखे तो पटादि के साथ भी सम्बन्ध रखने का अतिप्रसंग सावकाश है, उसके निवारण के लिये यदि आप प्रत्येक व्यक्ति में व्यापक और व्यक्ति से तादात्म्य रखने वाले सम्बन्ध की कल्पना करेंगे तो वह सम्बन्ध 'समानपरिणाम' से अन्य कौन होगा? अर्थात् समानपरिणाम को जब मानना ही पड़ेगा तब उससे भिन्न सामान्य की कल्पना का उच्छेद क्यों न होगा? और शुक्लादिवर्ण जैसे अपने आश्रय की स्वानुरूप प्रतीति अर्थात् 'शुक्ल वस्त्र' ऐसी प्रतीति का हेतु बनता है वैसे वह समानपरिणामरूप सत्तादि सामान्य 'घट सत् है' इत्यादि सत्वविषयकप्रतीतियों का हेतु भी क्यों न हो सकेगा? तथा अतिरिक्त सामान्य पक्ष में, यदि आप सामान्य में सत्तादिजाति के विना भी 'सामान्यं सत्' इस प्रकार सामान्य को स्वत: सत्वादिप्रतीति का विषय मानते हैं तो द्रव्यादि के उ.पर आप को द्वेष क्यों है जिस से सामान्य के विना 'द्रव्यं सत्' इस प्रकार द्रव्यादि को स्वत: सत्वादिप्रतोति का विषय नहीं मान लेते ? यदि सामान्य में अपर सामान्य से सत्वादिप्रतीति का उपपादन करेगे तो उस अपर त्य में भी नये नये सामान्य को मानकर तद्विषयक सत्वादिप्रतीति का उपपादन करना होगा में अनवस्था दोष लगेगा। जिस रूप का जहाँ अध्यारोप नहीं किया गया, उसको तद्विषयक प्रतीति का यदि हेतु मानेंगे तो सारे जगत् को उस प्रतीति के हेतु मानने का अतिप्रप्रसंग होगा। यदि एकवस्तुगत सत्तादिरूप को अन्यत्र अध्यारोपित मान कर तद्विषयकप्रतीति का उपपादन करेंगे तो वह प्रतीति भ्रान्त मानने की आपत्ति खडी है। [समवायादिसम्बन्धकल्पना में अनवस्था ] समवाय भी दो समवायि का तादात्म्य ही दिखता है । यदि उसको भिन्न मानेगे तो भी समवायियों में आश्रित तो मानना ही होगा और आश्रित मानने के लिये अन्य सम्बन्ध की कल्पना करनी पडेगी, फलतः यहाँ अनवस्था दोष होगा-यह पहले कह दिया है । समवाय के बदले यदि विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध मानेंगे तो उसको आश्रित मानने के लिये भी नये नये सम्बन्ध की कल्पना करने में अनवस्था दोष है। यदि विशेषण-विशेष्य भावसम्बन्ध को समवायीयों के साथ सम्बन्ध करने के लिये समवाय की कल्पना करेंगे और समवाय का समवायि के साथ सम्बन्ध करने के लिये विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध को मानेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष लगेगा। यदि कहें कि-समवाय को अनाश्रितरूप में ही सम्बन्ध मानेंगे तो यह आपत्ति होगी कि रूपादि को भी अनाश्रित मान कर ही घट में रूपादिवत्ता की बुद्धि का निमित्त मानना होगा। यदि समवाय को आप स्वतः सम्बन्ध मानने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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