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________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा ५९७ संसारानुच्छेदः, समाधिबलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्यावगतकर्मसामोत्पादितयुगपदशेषशरीरद्वारावाप्ताशेषभोगस्य कर्मान्तरोत्पत्तिनिमित्तमिथ्याज्ञानजनितानुसन्धान विकलस्य कर्मान्तरोत्पत्त्यनुपपत्तेः । न च मिथ्याज्ञानाभावेऽभिलाषस्यैवाऽसम्भवाद् भोगानुपपत्तिः, तदुपभोगं विना कर्मणां प्रक्षयानुपपत्तेर्ज्ञानतोऽपि तदथितया प्रवृत्तेः वैद्योपदेशादातुरस्येवौषधाद्याहरणे, ज्ञानमप्येवमशेषशरीरोत्पत्तिद्वारेणोपभोगाव कर्मणां विनाशे व्यापारादग्निरिवोपचर्यते इति व्याख्येयम् , न तु साक्षात् । न चैतद् वाच्यम्-तत्त्वज्ञानिनां कर्मविनाशस्तत्त्वज्ञानात् इतरेषां तूपभोगादिति, ज्ञानेन कर्मविनाशे प्रसिद्धोदाहरणाभावात् । न च मिथ्याज्ञानजनित संस्कारस्य सहकारिणोऽभावात विद्यमानान्यपि कर्माणि न जन्मान्तरशरीराण्यारभन्ते इत्यभ्युपगमः श्रेयान , अनुत्पादितकार्यस्य कर्मलक्षणस्य कार्यवस्तुनोऽप्रक्षयानित्यत्वप्रसपतेः । ___ अथ अनागतयोर्धर्माधर्मयोरुत्पत्तिप्रतिषेधे तज्ज्ञानिनो नित्यनैमित्तिकानुष्ठानं कथम् ? प्रत्यवायपरिहाराथम् । तदुक्तम्-[ ] नित्य-नैमित्तिकैरेव कुर्वाणो दुरितक्षयम् । ज्ञानं च विमलीकुर्वन्नभ्यासेन तु पाचयेत् ॥ अभ्यासात् पक्वविज्ञान: कैवल्यं लभते नरः । केवलं काम्ये निषिद्धे च प्रवृत्तिप्रतिषेधतः ।। तदुक्तम्-नित्यनैमित्तिके कुर्यात् प्रत्यवायजिहासया। मोक्षार्थी न प्रवर्तते तत्र काम्य-निषिद्धयोः॥ । अत एव विपर्ययज्ञानध्वंसादिक्रमेण विशेषगुणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूपमुक्त्यभ्युपगमे न तत्व. जानकार्यत्वादनित्यत्वं वाच्यम् , विशेषगुणोच्छेदस्य प्रध्वंसत्वात् तदुपलक्षितात्मनश्च नित्यत्वादिति, कार्यवस्तुनश्चाऽनित्यत्वम् । न च बुद्ध्यादिविनाशे गुणिनस्तथाभावः, तस्य तत्तादात्म्याभावात् । वह उपभोग से ही नष्ट होता हैं, उदा० शरीरजनक कर्म, पूर्व कर्म भी कर्मात्मक ही हैं इसलिये उपभोग से ही वे नष्ट हो सकते हैं। यदि शंका हो कि-उपभोग से यदि कर्मक्षय मानेंगे तो उपभोग से अन्य कर्मों का वन्ध भी अवश्य होने से संसार की परम्परा चलती ही रहेगी-तो यह ठीक नहीं है, समाधिबल से जिसने तत्वज्ञान कर लिया है वह कर्म के सामर्थ्य को (यह कर्म कितना उपभोग कराने में समर्थ है ऐमा) जानकर उसके अनुसार एक साथ उतने शरीरों को धारण कर लेता है और इस तरह कर्म फल का उपभोग कर लेता है फिर भी उसको नये कर्मो का बन्ध नहीं होता, क्योंकि नये कर्म को उत्पत्ति का निमित्त मिथ्याज्ञानजन्य 'देह में आत्मवृद्धि' स्वरूप अनुसन्धान है जो तत्त्वज्ञानी को नहीं होता है। [ तत्त्वज्ञानी की भी भोग में प्रवृत्ति युक्तियुक्त ] तत्त्वज्ञानी को भोगाभिलाषा होने का सम्भव ही नहीं है फिर वह भोग करेगा ही कैसे ? इस का उत्तर यह है कि तत्त्वज्ञानी यह जानता है कि उपभोग के विना कर्मक्षय होने वाला नहीं है, स्वयं कर्मक्षयार्थी हाने के कारण तत्त्वज्ञानी की उक्त ज्ञान से ही उपभोग में प्रवृत्ति हो जाती है, उसके लिये भोगाभिलाषा की आवश्यकता नहीं है । जैसे दर्दी को कटु औषध पान की अभिलाषा न होने पर भी वैद्य के उपदेश से रोगनाश के लिये उस में प्रवृति होती है। तत्त्वज्ञान से मोक्ष होने का जा गीता में कहा है उसकी भी यही व्याख्या है कि कर्मनाश के लिये आवश्यक संपूर्ण कर्मव्यूह के द्वारा उस कर्म का भोग कर के नाश करने में तत्त्वज्ञान व्यापार रूप है इसीलिये उपचार से उसको अग्नि जैसा कहा है । वास्तव में वह अग्नि की तरह साक्षात् कर्मविनाशक नहीं है । अत: 'तत्त्वज्ञानीओं को कर्मनाश तत्त्वज्ञान से होता है और दूसरों को उपभोग से होता है-यह कहने लायक नहीं रहा, क्योंकि ज्ञान से कर्म का नाश होने में कोई भी प्रसिद्ध उदाहरण ही नहीं है । कर्म की सत्ता रहने पर तत्त्वज्ञानी का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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