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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
अथोपभोगादपि प्रक्षये "नाऽभुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि" [ ] इत्यागमोऽस्ति, तथा च विरुद्धार्थत्वादुभयोरेकत्रार्थे कथं प्रामाग्यम् ? उपभोगाच्च प्रक्षयेऽनुमानोपन्यासमपि कुर्वन्ति'पूर्वकर्माण्युपभोगादेव क्षीयन्ते, कर्मत्वात , यद् यत कर्म तव तद् उपभोगादेव क्षीयते, यथाऽरब्धशरीरं कर्म, तथा चैतव कर्म, तस्मादुपभोगादेव क्षीयते' इति । न चोपभोगाव प्रक्षये कर्मान्तरस्यावश्यंभावात या आगम प्रमाण उपलब्ध नहीं है अत: हेतु में कालात्ययापदिष्ट (बाथ) दोष भी नहीं है । तथा विपरीतार्थ का साधक कोई प्रतिपक्षी हेतु भी नहीं है। इस प्रकार पक्षवृत्तित्व, सपक्षवृत्तित्व, विपक्ष में अवृत्तित्व, अबाधितत्व और असत्प्रतिपक्षितत्व ये पांच हेतु के रूप प्रस्तुत हेतु में विद्यमान होने से, यह अनुमान बुद्धिआदि विशेषगुण शून्य मुक्ति की सिद्धि में ठोस प्रमाण है।
[ मुक्ति का हेतु तत्त्वज्ञान ] ऐसा कहने की जरूर नहीं है कि-'नैयायिक विद्वानों ने नाश निर्हेतुक होने का निषेध किया है अत: जिस हेतु से उक्त सन्तान का उच्छेद होता हो ऐसे हेतु को दिखाना चाहिये ।' जरूर न होने का कारण यह है कि हमने (नैयायिकों ने) विपरीत ज्ञान के क्रमशः व्यवच्छेद से, प्रमाणादि सोलह तत्त्वों के ज्ञान को मोक्ष का हेतु कहा ही है। सीप आदि स्थल में, रजत के मिथ्याज्ञान को निवृत्ति करने का सामर्थ्य सम्यग्ज्ञान में ही होता है यह देखा हुआ है। पूर्वकालीन मिथ्याज्ञान से उत्तरकालीन सम्यग्ज्ञान का ही विरोध होने को तो सम्भावना ही नहीं है, क्योंकि यहाँ विरोध का तात्पर्य सन्तानोच्छेद की विवक्षा में है । अर्थात् , मिथ्याज्ञान के सन्तान का सम्यग्ज्ञान से उच्छेद होता है यह सुविदित है किन्तु मिथ्याज्ञान से सम्यग्ज्ञान के सन्तान का कभी उच्छेद नहीं होता है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान सत्य अर्थ पर अवलंबित होने से बलवान होता है। मिथ्याज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर मिथ्याज्ञानमूलक रागादि का उद्भव भी रुक जाता है, क्योंकि कारण न होने पर कार्योत्पत्ति नहीं होती। रागादि के न होने पर तन्मूलक प्रवृत्ति भी रुक जाती है । प्रवृत्ति के विरह में धर्म और अधर्म का उद्भव रुक जाता है। ऐसे धर्म और अधर्म जिन के विपाक से उन का फलजनन शुरु हो गया है ऐसे धर्म-अधर्म का उपभोग से ही क्षय होता है । जब कि संचित (सुषुप्त) धर्माधर्म का क्षय तो तत्त्वज्ञान से ही हो जाता है । गीता शास्त्र में कहा भी है कि
जैसे समृद्ध अग्नि पलमात्र में इन्धन को जला देता है वैसे ज्ञानरूप अग्नि भी सभी कर्मों को भस्मसात् कर देता है।
[ उपभोग से ही कर्मविनाश की उपपत्ति ] संचित कर्म का विनाश तत्त्वज्ञान से होने का कहा उसमें यह विवेकपूर्ण मीमांसा करना आवश्यक है कि उपभोग से भी कर्म क्षीण होते हैं इस तथ्य का प्रतिपादक यह आगम वचन है कि'अब्जों युग बीत जाने पर भी भोग के विना कर्म का क्षय नहीं होता है। दूसरी और तत्त्वज्ञान से कर्मक्षय खाया जाता है। एक ही अर्थ के विषय में परस्पर विरुद्ध अर्थ के प्रतिपादक दोनों विधान में प्रामाण्य कैसे हो सकता है ? तथा उपभोग से ही कर्मक्षय होता है-इस तथ्य में अनुमान प्रमाण भी दिखाया जाता है-पूर्व कर्म उपभोग से ही क्षीण होते हैं क्योंकि वे कर्म हैं, जो जो कर्म होता है
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