________________
सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १
पादितम् । न चात्मनो व्यापित्वे नित्यत्वे च ज्ञानादिकार्यकारित्वमपि संभवति । तन्न तत्कार्यत्वादपि तद्विशेषगुणो ज्ञानम् । न चात्मनः प्रदेशाः सन्ति येन प्रदेशवृत्तित्वं ज्ञानस्य सिद्धं स्यात् । कल्पिततप्रदेशाभ्युपगमे च तद्वृत्तित्वमपि हेतुः कल्पित इति न कल्पितात् साधनात् साध्यसिद्धिर्यु क्ता, सर्वतः सर्वसिद्धिप्रसंगात् । संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वं च हेतो: विपर्यये बाधकप्रमाणावृत्त्याऽत्रापि समानमिति । तथा स्वदेहमात्र व्यापकत्वेन हर्ष-विषादाद्यनेकविवर्त्तात्मकस्य 'श्रहम्' इति स्वसंवेदन प्रत्यक्षसिद्धत्वादात्मनो विभुत्वसाधकत्वेनोपन्यस्यमानः सर्व एव हेतुः प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टः । सप्रतिपक्षश्चायं हेतुरित्यसत्प्रतिपक्षत्वमप्यस्य लक्षरणमसिद्धम् । स्वदेहमात्रात्मप्रसाधकश्च प्रतिपक्षहेतु रत्रैव प्रदर्शयिष्यते । तन्नातोऽपि हेतोरात्मनो विभुत्वसिद्धिः ।
५६४
[ ज्ञान आत्मा का विशेषगुण कैसे ? |
तात्पर्य इस प्रश्न है कि जब आत्मादि सभी द्रव्य से ज्ञान सर्वथा पृथक् ही है तब यह तफावत कैसे किया जाय कि ज्ञान आत्मा का ही गुण है और आकाशादि का नहीं है ? समवाय से यह तफावत नहीं किया जा सकता क्योंकि समवाय उन दोनों से पृथक् पदार्थ होने पर वह उन दोनों के बीच ही हो और अन्य पदार्थ के बीच न हो यह तफावत कैसे होगा ? अर्थात् पूर्वोक्त दोष तदवस्थ ही रहेगा । तात्पर्य, पृथक् समवाय सर्वत्र समानरूप से होने से, उससे वह तफावत नहीं हो सकता । यदि समवाय दो समवायि से अपृथक होगा तो वह समवायीरूप ही हो जाने से समवाय का नामोनिशां मिट जायेगा । अतः समवाय से कोई विशेष नहीं हो सकता । तथा समवाय सिद्ध भी नहीं किया जा सकता यह कह दिया है । तथा दूसरी बात यह है कि आत्मा को व्यापक एवं कूटस्थ नित्य मानने पर वह ज्ञानादि कार्यों को कभी नहीं कर सकेगा । इसलिये आत्मा का कार्य होने से ज्ञान को आत्मा का विशेषगुण मानने का तर्क भी नहीं टिकेगा । तथा न्यायमत में आत्मा अप्रदेशी है अतः ज्ञान की उसमें प्रदेशवृत्तिता भी सिद्ध होने का संभव नहीं है । यदि आत्मा के कल्पित प्रदेशों को मानेंगे तो प्रदेशवृत्तिता भी कल्पित हो गयी, तो इस कल्पितप्रदेशवृत्तिता के साधन से साध्यसिद्धि का होना युक्तियुक्त नहीं है, अन्यथा जिस किसी भी वस्तु से जैसे तैसे पदार्थों की सिद्धि को जा सकेगी । तथा 'प्रदेशवृत्तित्व' हेतु परममहत्परिमाण शून्यद्रव्य में समवेत पदार्थ में रह जाय तो कोई इसमें बाधक प्रमाण न दिखा सकने से हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति भी संदिग्ध हो जाने का दोष यहाँ भी समान रूप से लागू होगा ।
[ आत्मवित्वसाधक हेतुओं में बाध दोष ]
दूसरी बात यह है कि आत्मा में विभुपरिमाणसाधक हर कोई हेतु कालात्ययापदिष्ट दोषवाला हो जाता है । देखिये- आत्मा 'अहम्' इस प्रकार के स्वप्रकाशप्रत्यक्ष संवेदन से सिद्ध है, इस संवेदन में आत्मा अपने देह मात्र में व्याप्त और हर्षविषादादि अनेक विवर्ती के अधिष्ठानरूप में संविदित होता है, इस प्रत्यक्ष संवेदन से विभुत्वरूप साध्य का निर्देश बाधित होने के बाद जो भी हेतु प्रयुक्त किया जायेगा वह कालात्ययापदिष्ट ही होगा । तथा उक्त सवेदन के आधार पर ही देहमात्रव्यापित्वसाधक प्रति अनुमान ( हेतु ) से आपका हेतु सत्प्रतिपक्ष दोषवाला हो जायेगा, अर्थात् उसमें 'असत्प्रतिपक्षितत्व' लक्षण ही असिद्ध हो जायेगा । वह प्रति अनुमान, यानी देहमात्रव्यापिता का साधक प्रतिपक्षी हेतु इसी प्रस्ताव में दिखाया भी जायेगा। तात्पर्य, आपके कथित हेतु से आत्मा में विभुत्व की सिद्धि नहीं हो सकती ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org